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Archive for अगस्त 9th, 2007

मौसम– अप्रेल अंत और मई शुरू को छोड दें…तो पूरा साल मौसम सन्ट रहता है एकदम…खूब सर्राटेदार हवा चलती है। ना ज्यादा गर्मी..न ज्यादा ठंड…और अच्छी बरसात।

खाना– खाने की परेशानी पर अपने शुरुआती दिनों में लिख चुका हूँ, बेचलर्स को ज्यादा समस्या होती है। लेकिन फिर भी, ’सिर्फ शाकाहारी’ होटल खूब मिल जायेंगे…

किताबें – क्या कहने। अबिड्स पर हर रविवार को पुरानी किताबें बिकती हैं…पटरी पर..खूब सारी। किताबों की पारखी नजर होनी चाहिये..और ढूंढने के लिये समय और धैर्य। १५ दिन पहले जार्ज आर्वेल (George Orwell) की १९८४ (1984) मात्र रु. २५/- में खरीद कर लाया हूँ। कभी कभी हिन्दी किताबें भी मिल जाती हैं। इसके अलावा एक-दो अड्डे और हैं अच्छी किताबों के।

Cost of Living: दिल्ली और बैंगलोर जैसे महानगरों से कहीं कम। हालंकि शहर जिस ते्जी से बढ रहा है, उसे देखते हुए आने वाले समय में ऐसा रहेगा नही ज्यादा समय तक। कुछ इलाकों में एक-एक एकड जमीन करोडों में बिक रही है…लेकिन फिलहाल ४-६ हजार में २ BHK का ठीक ठाक फ्लेट मिल जाता है (पगडी मात्र २ महीने की….बैंगलोर वाले १० महीने की मांगते हैं)

आटो – चेन्नई और बैंगलोर (बंगलुरू) के आटो चालकों की करतूतों के इतने किस्से पढ रखे हैं कई अंग्रेजी चिट्ठों पर। लेकिन हैदराबाद के ९०% आटो चालक आपके साथ बेइमानी नही करेंगे, एकदम बेफिक्र रहिये। २८ रुपये होने पर २८/- ही लिये जाते हैं…२ रुपये छुट्टे वापस कर दिये जाते हैं…हर आटो वाला मीटर से चलता है…बिरला ही lumpsum राशि की मांग करता है

फिल्में – हैदराबाद से सस्ती फिल्में (नई) आप इस स्तर के शहर में पूरे हिन्दुस्तान में शायद ही कही देख पायें। मल्टीप्लेक्स कभी नही जाते । लेकिन जितने भी सिनेमाघर हैं…दरें १०/- से ५०/- के बीच ही मिलेंगी। हिन्दी फिल्में खूब देखी जाती हैं। कई फिल्में First Day देखीं हैं यहाँ। और हाँ, मेरे घर की २-३ किलोमीटर की परिधी में १०-१५ सिनेमाघर होंगे। 🙂

भाषा– बिल्कुल समस्या नही। सब लोग हिन्दी बोल समझ लेते हैं (हैदराबाद/सिकन्दराबाद में)। कई बार ऐसा हुआ है कि आटो वाले को सिर्फ हिन्दी ही आती थी, तेलुगु नही।..शायद यही वजह रही कि अब तक तेलुगू नही सीख पाया…जो खटकता है अक्सर।

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ये मेरी सौवीं पोस्ट है। चिट्ठाकारी करते हुए पिछले महीने २ साल पूरे किये। पच्चीस महीने में १०० का आँकडा। औसतन, महीने में चार पोस्ट। कोई तीर मारने वाला काम तो नही (बडे बुजुर्ग दो-तीन महीनों में लिख मारते हैं) पर मुझे जैसे आलसी के लिये यही बहुत है…कि किसी काम को लगातार २ साल करता रहा। ये विश्वास भी है कि विकेट पे डटे हुए हैं..चाहे धीरें खेलें..पर नाबाद हैं(बरबाद तो हैं ही…)।

कई लोगों की तरह..पहला हिन्दी ब्लाग रवि जी का देखा था, सुखद आश्चर्य हुआ था और अंग्रेजी में टिप्पणी छोडी थी। ३-४ महीने देखता रहा..उन लोगों के चिट्ठे..जिन्हे आजकल अनूप जी नोस्टाल्जियाते रहते हैं …थोडे दिन बाद खूद भी कूद पडा..हालाँकि खुद को भी पता नही था कि यहाँ क्या लिखूंगा… पहले ब्लागस्पाट पर, और पिछले साल वहाँ दिक्कत आने पर यहाँ वर्डप्रेस पर। बहुत बिट्स/बाइट्स बह गये दरिया में इस दरमियान।

थोडा लिखा…खूब पढा..क्या खूब पढा और खूब सीखा। नये लोगों से परिचय हुआ, सोंच का दायरा बढा…नये मित्र भी बने। सफर चल रहा है..और सफर का मजा भी आ रहा है। इस सफर में साथ देने के लिये आप सबका शुक्रिया….

अभी खयाल-ए-जिगर का गुबार राह में है,
बहार आ कर रहेगी, बहार राह में है,
बढे चलो के वो मंजिल अभी आई नही,
ये वो मुकाम है जिसका शुमार राह में है।

(ये पंक्तियां पापा ने ३-४ साल पहले CAT की परीक्षा के समय भेजी थीं, हास्टल मे….शायर का नाम मालूम नही है)

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