मान्यता से मतलब संजूबाबा वाली मान्यता से ना लगाइयेगा। मैं बात कर रहा हूं छुटपन की अपने कुछ धारणाओं/विश्वासों की, जो पता नही कब,कहां से मन में बैठी थीं और कब धी्रे-धीरे बडे होते हुए, दिमाग से निकल भी गईं। ये छोटे बच्चों के आपस की बाते हैं…शायद आपको समझ में ना भी आएं…पर पढने में तो कोई हर्ज नही। 🙂
- बारिश के दिनों में बगीचे में नमी वाली जगह पर चटक लाल रंग का एक कीडा निकलता है, छोटा सा, जिसकी पीठ एकदम मखमली होती है। हमारे यहां इसे सावन की डोकरी कहा जाता था। हमारा विश्वास था कि सावन की डोकरी को अगर काँच की शीशी में कुछ दिन बंद कर दें तो वो पाँच पैसे के सिक्के (इतना ही लेवल था अपना) में बदल जाती है। काफी फायदे का सौदा था…पर कभी फलीभूत नही हुआ। ऐसे प्रयोग कुछ और कीडों के साथ भी किये गये, डिब्बियां भी बदल कर देखीं…कांच की जगह प्लास्टिक की डिब्बी रख कर देखी…क्या क्या नही किया पाँच/दस पैसों के लिये…पर सब बेकार! 😦
- अगर रेल की पटरी पर पचास पैसे या एक रुपये का सिक्का रख दें और उसके ऊपर से रेल निकल जाये तो वो चुम्बक में बदल जाता है। चुम्बक बचपन की सबसे प्रिय चीजों में थी और उसके छोते छोते तुकडे भी संभाल कर रखे जाते थे। लेकिन यह प्रयोग कर नही पाते थे, सिर्फ सुना था, इसके बारे में। क्योंकि गांव तो क्या…हमारे जिला मुख्यलय तक आजतक रेल नही पहुँची। और फिर एक रुपये का सिक्का इस तरह तो कुर्बान नही किया जा सकता ना?
- जिस बेर या अमरूद में मिट्ठू ने चोंच मारी हो वो और ज्यादा मीठा हो जाता है। ऐसे फल को हम मिट्ठूकट कहते थे…। सच तो ये है कि उसे किसी भी पक्षी ने काटा हो…अपने लिये वो मिट्ठूकट ही होता था। और सच में…मीठा भी होता था।
- एक पेड हुआ करता था जिस पर एक अजीब सी चीज लगती थी जिसे हम “बन्दर की रोटी” कहा करते थे। ना तो मुझे उस पेड का अन्य कोई नाम मालूम है ना उसके पत्तों,तने की शकल। नेट पर भी नही ढूंढ पाया। एक रुपये के सिक्के जैसा फल होता था वो, जिसमें एक मींजी हुआ करती थी, जो खाने में बडी स्वादिष्ट लगती थी। बंदर से उसका क्या संबंध था ये आज तक नही मालूम। (अगर किसी को उस पेड के बारे में पता हो बतायें प्लीSSSज।)
- एक और
अंधविश्वास ये था कि अगर खजूर अथवा बेर खाते समय गुठली निगल गये तो पेट में उसका पेड उग जायेगा। या मीठी गोली (बोले तो टाफ़ी) खाते समय भी गलती से ऐसा हादसा हो गया, तो पेट में उसका पेड उग जायेगा। संतरे की गोली आती थी २० पैसे की एक। अब ऐसा नही था कि पेड से हमें कोई आपत्ती थी ..भई पेड होगा तो फलों की बहुतायत हो जायेगी ना फोकट में। पर अपने को प्रेक्टिकल प्राब्लम्स का डर रहता था। पेड उगा तो निकलेगा किधर से(!)…जडें किधर(!) फैलेंगी..हम कुछ और कैसे निगलेंगे/निकालेंगे आदि आदि 🙂 । कई बार ऐसा हुआ कि गोली चूसते चूसते या बेर खाते हुए गुठली निगल गये, और फिर कितनी देर तक डर सताता रहा कि पेड न उग जाये।
- एक पौधा होता था,जिसका नाम होता था विद्या। हमारा ऐसा मानना था कि इसकी पत्ती किताबों में रखने से ‘विद्या’ आती है, बोले तो ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति का ये जिन्दगी में आजतक का सबसे सरल एवं सुगम मार्ग है। आप क्या सोंच रहे थे…इतना ज्ञान हम ऐसे ही झाड रहे हैं इत्ती देर से? 🙂
आप बताइये…आप भी सोंचा करते थे बचपन में ऐसा कुछ?
बजरंग इन्टर कॉलेज भदरी के बहुत पास ही भदरी रेलवे स्टेशन है, इसलिये हमें यह दूसरे नम्बर वाला प्रयोग करने के काफी अवसर मिले, हमने २ बार प्रयोग किये, २५ और ५० पैसे के सिक्के से..दोनो बार सफल रहे 🙂
ओहो नितिन क्या क्या याद दिला दिया । विद्या पत्ती कई कई किताबों में रखी । अब कितनी विद्या उससे आई और कितनी जतन से सो आप बताएं । सिक्के रेल की पटरी पर खूब रखे और चुंबक ख़ाक बने । हां पी.सी.ओ. के ज़माने में एक रूपये के सिक्के में छेद करके पतले तार से बांध लेते थे और जेब में हमेशा रखते थे । इससे हर कॉल् मुफ्त होता था । समझे ना तरकीब । बात करो फिर सिक्का वापस खींच लो । हे हे हे । संतरे की गोली की भी अच्छी याद दिलाई । जिसकी शकल संतरे की फांक जैसी होती थी । अरे हां मनी प्लांट चोरी करो तो अच्छा लगता है । ये तो अभी अभी तक लोग मानते हैं । एक और काम करते थे । टिड्डे की पूंछ में धागा बांधकर उसे उड़ाते थे । और एक चीज़ जिस पर अब अफ़सोस होता है । पीली तितली को कॉपी के बीच रख लेते थे । कितना कुछ याद दिला दिया । इक था बचपन इक था बचपन ।
बहुते पुरानी यादों में ले गये भाई!! लिखने बैठे तो पन्ने भर जायेंगे. अभी तो आपके संग उन्हें जी लिये ले रहे हैं. आभार इस सैर का.
पुरानी यादों की बातें अच्छी हैं। पर यह संजू बाबा की क्या मान्यता है जी?
दिल खुश कर दिया आपने, उन दिनों की हरकतों को याद दिला कर,
बढ़िया उदहारण दिए..अच्छा लगा पढ़ कर
वाह भाई, क्या बचपन की याद दिलाई है। रेल की पटरी पर दबा कर बहुत बार दो पैसे का सिक्का दस पैसे का बनाया। पर बाजार में चला एक बार भी नहीं। सावण की डोकरी खूब देखी है। संस्कृत में इसे इन्द्रगोप कहते हैं। प्रोस्टेटवृद्धि के रोग की आयुर्वेदिक दवा का मुख्य तत्व है। और वह जुगनुओं को जेब में रख कर बरसाती रातों में जेब चमकाना। पंतंग के मंजा बनाने के वशीकरण टाइप नुस्खे। सब केवल यादें हैं अब। और एक मलाल है, हमारे बच्चों को वो मस्ती नसीब न थी।
एक गाना याद आ रहा है,: बचपन के दिन भूल न जाना- – – – -.
बचपन के दिन कभी विस्मृत नहीं होते, हां ज़िन्दगी की भागमभाग में कहीं छुप जाते हैं. मेरे बचपन के ऐसी ही एक धारणा आप के साथ बांटना चाहती हूं.जब हम प्राइमरी स्कूल में थे, तो माना जाता था कि पेन्सिल के छिलकों को १५ दिनों तक दूध मिले पानी में रखने से वो मिटाने वाला इरसेर यानि कि रबर बन जायेगा.हम से पूछिये, हमने कितनी पेन्सिलें छील छील कर शहीद कर दीं,और कितनी मां से डांट-मार खाई,दूध चुराने के चक्कर में पतीला उलट दिया, किन्तु कमबख्त रबर कभी हासिल नहीं हुआ.
वाह नितिन भाई
क्या क्या याद दिलवा दिया आपने.. चुंबक तो हमारी भी सबसे पसंदीदा चीजों में से एक थी और आज २५ साल बाद हर्ष की भी सबसे पसंदीदा है। 🙂
बहुत सी बातें याद आ रही है, विद्या की पत्ती की जगह हम मोरपंख से भी काम चला लेते थे। बंदर की रोटी को हम बंदर पापड़ी कहते थे.. मेरे घर के आस पास बहुत से पेड़ हैं, पिछले साल तो श्रीमती जी को सुबह सुबह उठा कर घूमने ले कर जाता था बहाना घूमने का होता था जबकि मैं तो बंदर पापड़ी खाने ही जाता था।
आप कभी खाना चाहें तो आ जायें पास में ही है.. आपके घर से शायद ६-७ किमी होगा।
इलाजी वाला रबड़ भी हम भी बनाया करते थे,, कभी रंग भी जमाया करते थे, चॉक को पीस कर अलग अलग स्याही और रंग मिला कर… वाह रे बचपन।
बहुत सी चीजें याद आ रही है.. टिप्पणी की भी मर्यादा है ।
मिश्रा जी, यूनुस भाई, समीर जी, ज्ञान जी, संजीत जी, मनीष भाई, दिनेश की, इला जी, सागर भाई – टिप्पणी करने और अपनी यादें सांझी करने के लिये शुक्रिया।
ज्ञान जी, आप फिल्म जगत में रुचि नही रखते सो आपकी फिल्मी जी. के. थोडी कमजोर हो गई है। 🙂 मान्यता संजय दत्त की दूसरी या तीसरी बीवी हैं…हाल ही में शादी की हैं इन लोगों नें और थोडा पंगा भी पड गया है इसमें।
सागर भाई- सारी मर्यादाओं को परे कर टिप्पणी कीजिये..इसे अपना ही घर समझिये 🙂 | चाहें तो अपने ब्लाग पर पोस्ट भी लिख सकते हैं। बंदर की रोटी का सतूना किसी दिन लगता है तो देखते हैं।
अजी हम तो अपने कालेज में भी सिक्के को चुम्बक बनाने का ट्राई मार चुके हैं और वो भी तब जब पोस्टग्रैजुएसन में थे.. क्योंकि बचपन में हम ये नहीं कर पाये थे.. 😉
[…] 29, 2008 by Nitin Bagla पिछली पोस्ट में बचपन के कुछ टोटकों/धारणाओं पर लिखा […]
[…] 31, 2008 by Nitin Bagla पिछली पोस्ट में बचपन के कुछ टोटकों/धारणाओं पर लिखा […]
[…] की कुछ बातें लिखी थीं..मसलन बचपन के टोटके और बचपन की तमन्नाएं। एक और चीज़ जिस पर […]
[…] दिनों नितिन बागला जी ने अपनी पोस्ट में कई सारी ऐसी ही चीजों का जिक्र किया […]
hello,
saral bhasha me likha gaya lekh sunder hai. bachpan ki meethi baten bantne ka shukria ap sab ko.
sorry,main roman me type kar rahi hoon kyonki hindi kaise type karoo pata nahi.
wah re wah kya kya baat kar diya
dhoti ko fhad k rumaal kar diya
अरे विद्या बूटी वही सफ़ेद दूब तो नहीं?
http://www.flowersofindia.net/catalog/slides/Indian%20Elm.html (Bandar Papdi)