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दैनिक पठन खुराक

अपनी रोज की पठन खुराक –

अखबार – टाइम्स आफ इंडिया – कागजी प्रारूप-  पूरा नही पढा जाता- सरसरी निगाह ही डाल पाते है।

गूगल रीडर पर चुनिन्दा हिन्दी-अंग्रेजी चिट्ठे जिनकी फीड सदस्यता मैने ले रखी है।

दैनिक भास्कर- इंटरनेट संस्करण- विशेष रूप से जय प्रकाश चौकसे का कालम परदे के पीछे

राजस्थान पत्रिका – इंटरनेट संस्करण – विशेष रूप से मेरे गृह जिले झालावाड की खबरें ।

कभी कभार देसी पंडित से चुनिन्दा अंग्रेजी चिट्ठे ।

रेडिफ पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरें – हाल ही में कलेवर बदल देने के बाद से पठनीयता कम हो गई है। विकल्प की तलाश है।

ब्लागवाणी पर एक सरसरी निगाह डालते हुए कुछ चिट्ठे ।

पुस्तकें पढना आजकल खत्म सा हो गया है। पुनः शुरु करने के प्रयास जारी हैं। कई पुस्तकें बाट जोह रही हैं।

आप रोज क्या पढते हैं?

समाचार एवं सूचना साइट रेडिफ ने हाल ही में अपने कलेवर की झाड-पोंछ की है। हालांकि मेक-अप, पाउडर और लीपापोती ही ज्यादा है…कंटेंट के नाम पर अभी भी वही उलूल-लजुलूल स्लाइड शो होते हैं। पर मुखपृष्ठ पर अब ज्यादा भीड-भाड नही दिखाई देती, बस चुनिंदा आइकन और लिंक्स दिखाई देते हैं। हालांकि साइट में थोडा अन्दर जाने पर लगने लगता है कि ज्यादा काट-छांट के चक्कर में Nevigation थोडा मुश्किल हो गया है। मसलन आप अगर Movies वाले हिस्से में विचर रहे हैं तो वहां से News वाले हिस्से में पहुंचने के लिये आपको वापस मुख पृष्ठ पर आना पडेगा।

खैर , ये तो Designing का मामला है, पर यह देखिये कि अपने Sports वाले हिस्से को रेडिफ मात्र Cricket कहना पसन्द करता है। याने क्रिकेट सब सारों का सार हो गया है। अगर इस भाग में सिर्फ क्रिकेट से जुडी खबरें होती तो ठीक था, पर खबरें आपको यहां सभी खेलों से जुडी मिलेंगी, Url भी http://www.rediff.com/sports है, लेकिन इसे जाना क्रिकेट के नाम से जाना जाता है। सही है…हिन्दुस्तान में वैसे भी क्रिकेट के आगे बाकी सारे खेल पानी भरते हैं।

रेडिफ

और हाँ..कभी मन नही लग रहा हो और दिमाग का दही करने का मूड हो तो रेडिफ के लेखों के Discussion Board देखियेगा।  टाइमपास और सर खुजाने  के लिये अच्छी जगह है। 🙂

चार साल

सुबह से दिमाग में कुछ खटक रहा था कि आज कुछ विशेष दिन है, पर समझ नही आ रहा था क्या?

अभी ऐसे ही वर्डप्रेस खोल लिया तो ध्यान आया कि आज अपने इस चिट्ठे की चौथी सालगिरह है। लिखने के हिसाब से यह साल काफी सुस्त बीता है। हालांकि कई अन्य मोर्चों पर काफी क्रांतिकारी भी रहा। पिछले एक साल में मात्र ७ पोस्ट लिख पाया हूं। हालांकि लिखने लायक काफी कुछ हुआ इस दरमियान लेकिन प्राथमिकताएं कुछ और रहीं।  पुस्तकें पढना भी बहुत कम हुआ इस साल, पर ब्लाग पढना बदस्तूर जारी रहा है।

पिछले कुछ दिनों से सोंच रहा था कि ब्लाग को पुनर्जीवित करना है। इस चौथी सालगिरह ने एक अच्छा बहाना दे दिया। अब देखते हैं यह कब तक हो पाता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलंबरदार NDTV और उनकी एक प्रिय चेहरे की एक हरकत की खबर अभी हाल ही में अंग्रेजी ब्लागमंडल में घूमते हुए मिली जहाँ एक ब्लागर को कानूनी कार्यवाही के सम्मन के जरिये अपनी पोस्ट हटाने और सार्वजनिक रूप से माफीनामा लिखने के लिये मजबूर किया गया।

ब्लागर चैतन्य कुंटे ने अपने ब्लाग पर मुम्बई धमाकों के दौरान हुई मीडिया कवरेज को आडे हाथों लेते हुए इस चैनल और इसके रिपोर्टर पर एक पोस्ट लिखा थी। (पोस्ट अब हटा दी गई है…पर जय हो गूगल Cache की, इंटरनेट पर तो सब कुछ मौजूद रहता ही है, इस पेज पर सबसे नीचे वाला आलेख देखें)। उसके बाद NDTV ने उन पर कानूनी कार्यवाही का सम्मन भेजा (इस पेज पर दूसरा संदेश देखें)। चैतन्य ने अपनी वो पोस्ट हटा ली और यह माफीनामा अपने ब्लाग पर डाला।

और जानकारी एवं अन्य अंग्रेजी चिट्ठाकारों के विचार यहाँ पढें।

यह है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों की हकीकत। इन्हे अपनी आलोचना बिल्कुल बर्दाश्त नही। सवाल यह नही है कि ब्लागर ने जो लिखा था वो कितना सही या गलत था…लेकिन अगर इसी प्रकार का नोटिस कोई नेता किसी टी वी चैनल को थमा दे तो कितना हल्ला मचाया जायेगा? याने आप  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ सबको पढाओ लेकिने खुद अपने बारे में एक शब्द सुनने को तैयार नही…।

क्या किसी ब्लागर से उसकी पोस्ट डिलीट करवाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटना नही माना जायेगा? और क्या दुनिया भर की आलोचना करने वाले समाचार चैनल और इनके कर्णधार आलोचनाओं से परे हैं?

मुझे ताज्जुब है कि हिन्दी ब्लागमंडल में इस घटना पर अब तक कोई चर्चा नही हुई है (या शायद मेरी नजर नही पडी)। गुजारिश करूंगा की अगर आपको ये गलत लगता है तो इसके विरोध में अपने ब्लाग पर एक पोस्ट जरूर लिखें।

कुछ दिन पहले सफर की कतरनें लिखते समय भारतीय रेले के स्लीपर क्लास डब्बों में साइड में तीसरी बर्थ घुसा देने से हुई परेशानी पर लिखा था…। कुछ अन्य लोगों ने भी इससे हुई परेशानी का जिक्र किया था। सागर भाई ने भी अपनी एक पोस्ट में इसका जिक्र किया था।

रेलवे की साइट पर हाल ही में एक opinion poll डाला गया है जिसमें इस असु्विधा सुविधा पर यात्रियों से प्रतिक्रिया माँगी गयी है। अन्य लोगों ने भी हाल में रेल यात्रा करते समय इससे होने वाली दिक्कतें भुगती होंगी मसलन सामान रखने के लिये कम जगह, बैठेने  और लेटने के लिये के लिये कम जगह ( दिसम्बर में इन्दौर से मथुरा जा रहा था..साइड ऊपर के बर्थ पर लाख कोशिश के बाद भी खुद को फिट नही कर पाया..आखिरकार सीट बदलनी पडी)

Opinion Poll में भाग लेने के लिये यहाँ चपत लगायें।

फार्म के साथ के एक दिक्कत है कि आपकी यात्रा का सारा विवरण मांगता है., जो जरूरी नही की सबने संभाल कर रखा हो (PNR No., यात्रा तारीख, कोच एवं सीट न. आदि)

आतंक का अनुभव

दुःख,क्षोभ,गुस्सा,निराशा,हताशा…सब कुछ मन में एक साथ गड्डमगड्ड होते चले जाते हैं।

जब बीते साल हैदराबाद में बम धमाके हुए थे तब सच में बहली बार आतंकवाद को इतने करीब से महसूस किया था। मुम्बई में पिछले तीन दिन से चल रहे घटनाक्रम ने उसे अहसास को और गहरा कर दिया है। जैसा कि घुघुतिबासुती जी ने लिखा, आतंकवाद अब पास आता जा रहा है। कल तक ये दूर का समाचार हुआ करता था…लेकिन इस बार..!!! कम से कम तीन लोग जिन्हे मैं जानता हूँ..सीधे तौर पर प्रभावित हुए हैं।

इस हमले में मारे गये लोगों को श्रद्धांजली और आतंकवादियों से सामना करते हुए जान गंवाने वाले जांबाजों को सलाम।

मेरे एक सहकर्मी, उस समय VT Station पर थे जब वहाँ गोलियाँ चलीं। सौभाग्यशाली रहे कि बच निकले…अपनी आँखों के सामने लोगों को गिरते हुए देखा उन्होने। कल जब दिन में उनसे बात हुई तब तक काफी सामान्य हो चुके थे, लेकिन बोले – “जब भी टी वी देखता हूं…मुझे वो दृश्य आँखों के सामने दिखाई देता है। शायद कोई अच्छे काम किये होंगे जो बच गया। लेकिन ये झटका उम्र भर साथ रहेगा।”

कल रात को अपना अनुभव उन्होने मेल पर लिख कर भेजा। उनकी अनुमति से नीचे प्रस्तुत है।

It was 26th March 2008; one fine day was approaching its end. I was on my way back from ABCD back home. I was scheduled to board XYZ mail from Chatrapathi Shivaji terminus Mumbai at 11.30PM. I had started from ABCD with a great feeling of satisfaction that I was able to achieve what I had come for.

26th Nov 2008: 5PM:  It was 5PM I had boarded the Firozpur Janata Express towards Mumbai Central. I was happy that I could get a reservation in the train. But I was wrong. There was a huge tug-of-war to board the train and capture seats. I was surprised to see that there were 4 passengers occupying my reserved seat. But I understood that I need to go by it, as it was not possible to manage such a crowd. I squeezed myself amidst  four of my fellow passengers

26th Nov 2008: 8.30PM: I was approaching Mumbai. I recognized when the train passed by Borivile. I was prepared to get down the train. I was counting the no. of stations passing by, Mahalaxmi, Jogeshwari, Andheri, Dadar, Lower Parel etc, etc.. (My order of stations may be wrong). Finally I reached Mumbai Central

26th Nov 2008: 9.00PM: I just reached CST (formerly VT) by a taxi. I was admiring the layout of the station as how it had two separate terminals, one for the local and other for the main line. I went to the main terminal, I searched for the cloak room and deposited my suitcase. I still had 2.5Hrs to kill. I decided to explore the areas surrounding the station.

26th Nov 2008:10.00PM: I had just been to a beer bar and gulped in two mugs of draught beer. I went to a small food joint and relished Vada Pav (I still linger the taste). I was just entering the station corridor. BOOM.. Kad,kad, kad….. (What noise is that????)

26th Nov 2008:10.15PM: I see a young person holding his gun and firing the ticketing windows, the glass panels being broken, and turning towards the public, two to three cops with their guns started to target the two persons who were firing. One of them throws a grenade towards the cops. Lay down, lay down, (that was a guess cos. They were shouting in Marathi) screamed the police. I fell down.

26th Nov 10.30PM: I see the police cordoning off that area and chasing the terrorists towards the mainline terminal platforms. “Now run, run, run for your life” I said to myself and along with the crowd I ran outside with my backpack still strapped around my shoulders. I was praying to God. “Please save my life for the sake of my daughter, my wife and mother, they need me”

26th Nov 2008: 11.00PM: I ran across the road along with the crowd (I can hear continuous gun shots, explosion but was fading away as I was running away from the station) I saw young boys, girls, kids and I remember a mother hugging her child and running shouting for help. I had crossed the road and reached the other side. I saw shops and offices shutting down the doors and grills. I managed to squeeze into a cafeteria before the grill was forcefully shut

26th Nov 2008: 11.15PM: I was among 12 other people in that cafeteria. There was a knock at the gate, we hear a girl crying and pleading to let her in. One of the person just opened the gate such that she could just squeeze in. The lights were turned off and we were asked to be seated where we were and not to make any noise. I had thoughts of what planning I had as safety measure to support my family, if in case I would not make it home (wildest of thoughts, but I was forced to think so)

26th Nov 2008: 11.30PM: I began to get some confidence that we were safe. We heard sirens and rushing jeeps and cops shouting from mega phones that not to come out and that the operation was on in the station. I calmed down, so were others (excepting that girl who entered at last as her two sisters have boarded train to go the Goa and she was also supposed to join them)

26th Nov 2008: 11.45PM: One of the lights was switched on. We began to introduce each other. What a surprise! I was a XXXX , there was a Malayali ex-servicemen, an IT professional who speaks Telugu, two boys from Orissa, one elderly couple from Sholapur and the crying girl was a Konkani, two Govt servants of MTNL Mumbai,  We were under shelter of a Parsi (INDIA IS UNITED). I knew that I was out of danger and called one of my friends to help me to reach XYZ in the morning. I also requested him not to call up my home and inform on the situation. I was more concerned on their peace and did not want to make them restless.   “Breaking News – Firing at several places in Mumbai – 15 people injured: reports – 20 shots in CST station: Witnesses” – SMS alert on mobile phone

26th Nov 2008: 12 Midnight: My flight ticket was booked. He updated me that the incident was gang-war as per the news channels, but I sensed that it was something more serious.

27th Nov 2008: 12.23AM: “Breaking news – 10 killed in Mumbai terror attack, blasts in Colaba, Vile Parle, 2 ultras holed up in Oberoi hotel, India win by 6 wkts” – SMS news in my mobile. We peeped out through the grill. We see ambulances and police jeeps rushing inside and outwards the station. We see more cops in the streets.

27th Nov 2008: 12.30AM: The elderly couple had slept. The girl was in a sigh of relief as she was able to talk to her sisters who were in the train locked up and all doors and windows shut (as advised by the police), I saw her smiling which made all of us to smile as well. The IT guy was exploring ways to activate GPRS to get online news (His hi-tech mobile’s battery was down)

27th Nov 2008: 01.40AM: “Breaking News – 60 killed in Mumbai terror attack – many ultras hold up in Oberoi hotel – panic grips Mumbai” SMS alert on mobile. One of the Orissa boy says that this is often repeating in Mumbai and expressed that tomorrow Laluji will come and was saying some comic comments on him. We began to discuss on the safety measures that needs to be taken and were mentioning the 9/11 attacks in the US, Glassgow attack in the UK etc.,

27th Nov 2008:03.05AM: I had also dozed for some time, but was not fully asleep. Some were sleeping and the old man had lit up his beedi, disturbing the others inside the cafeteria. He understood our discomfort and put off his beedi. “80 killed in Mumbai terror attack- ATS chief Hemant Karkare dies – CST cordoned off” SMS news alert

27th Nov 2008: 03.30AM: The Malayalee ex-servicemen had left, someone had come to take him back home, we all wished him and felt happy that he was back his home. We now opened the grill gate and enquired with some of the cops who were roaming in the streets to control and heard that the CST station had been sanitized and around 30 to 40 would have been killed. People had started to move out to the streets (nature’s call mainly..)

27th Nov 2008: 04.30AM: Myself along with the IT professional and the hotel’s owner strolled across the road and saw that the station was returning back to normalcy. The train services were resumed and the early morning commuters have started coming to the station much to their shock and unawareness on what had happened last night. Taxi traffic resumed

27th Nov 2008: 04.45AM: I had my flight at 7AM and needed to start for the airport, I greeted and said Good Bye to the others in the cafeteria and walked towards the station hoping to take my suitcase back from the cloakroom. I saw bloody stains, scattered baggage, broken window panes. It was like a place immediately after war. The house keepers of the station began their duty (of course they would have not expected to clean pool of blood, broken glasses etc.) and I said to the cloakroom supervisor “Main tho kal raath hi aanewala tha …magar ??” and collected my suit case. It was weighing more and imagined that if I had not dropped my suitcase in the cloak room, I would have run with my suitcase and increasing my chance of getting plotted

27th Nov 2008: 05.00AM: I engaged a taxi to the airport (The taxiwala was greedy and wanted to make the most out of it, I paid him Rs 800/- to drop me at the airport). There was screening as I entered the airport and had to prove my identity and show my e-ticket confirmation SMS to the cop. I went to the ticket counter, got my e-ticket printed and entered inside the airport. I went to the toilet changed my clothes and freshened up. I did not want to reveal that I had witnessing the attack with my dirty clothes and blood stained chappals

27th Nov 2008: 6.00AM: I called up home and briefed about the last night events and that I have reached airport to board flight. They were shocked on hearing that and my mother had burst in tears, I spoke to my wife that I was alright and not have even the slightest of injury. “All passengers to XYZ are kindly requested to board the aircraft through gate no 9” passenger announcement. I went to board the aircraft

27th Nov 2008: 10.00AM: Landed at XYZ, amidst heavy rain. Boarded a taxi back home, was eagerly awaiting to see my family and finally made it by 11.30AM. “Appaa….” My daughter came running towards me. I was happy, my dear ones had a sigh of relief on their faces (So did I had)

सफर की कतरनें

दिवाली पर ९ दिन के लिये घर जाना हुआ।

रिजर्वेशन कन्फर्म नही हो पाया था, सो जाते समय तो जनरल डब्बे में बैठ कर गया। बहुत सालों बाद ट्रेन के जनरल डब्बे में बैठने का मौका लगा। हैदराबाद से भोपाल तक का रात भर का सफर था और ट्रेन में दिवाली की भीड का अंदाजा तो था…पर ये सोंच के चढ गये कि जाना तो है ही, किसी तरह आज की रात काटनी है बस। किस्मत से टिकने को जगह भी मिल गई…सो बैठ तो लिये ही।

१० व्यक्तियों के बैठने की जगह में ३० लोग फँसे हुए हों तो रात कैसी बीतनी है इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है पर मुझे ये समझ नही आता कि भारतीय रेलवे अपनी ट्रेनों में सामान्य श्रेणी के डब्बे क्यों नही बढाता। कालेज समय में कई बार जनरल बोगी में सफर करने का मौका लगा, अलवर-जयपुर-कोटा और मथुरा-कोटा के बीच, पर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि सामान्य श्रेणी के डब्बे में, लोगों को कम से कम बैठने की सीटें पर्याप्त पड रही हों…हमेशा भंयकर धकापेल ही देखी है।

एक अन्य बात यह,कि आज तक कभी सामान्य श्रेणी के डब्बे में टिकट परिचालक नही देखा…(शायद कमाई का स्कोप कम होता है यहाँ) खैर..आजू-बाजू और सामने वालों पर झूलते हुए और सिर पर पैर रखते हुए, २-४ बार लाइव लडाई देखते हुए, किसी तरह रात कटी और सुबह भोपाल और फिर आगे घर पहुँचे।

लौटते वक्त मैने तीन टिकट करवाये थे, भोपाल-हैदराबाद, भोपाल-नागपुर और नागपुर हैदराबाद…ये सोंचकर कि इनमें से कोई २ भी कन्फर्म हो गये तो सफर कट जायेगा। लेकिन सिर्फ भोपाल-नागपुर ठीक हुआ जबकि कठिन सफर उसके आगे का था। किस्मत से मित्र अंशुल के कजिन मेरी ट्रेन के पहले वाली ट्रेन से हैदराबाद जा रहे थे…उन लोगों के टिकट कन्फर्म थे..बस जनरल टिकट लेकर उनके साथ लद लिये। संयोग देखिये…इस बार तो स्लीपर श्रेणी में भी टी टी साहब ने परेशान नही किया…एक बार उनके दर्शन हुए पर वो इतने व्यस्त थे कि टिकट चेक करने की फुरसत में नही दिखे।

पिछली सफर की कतरनों में मैने लेपटाप के Penetration और ट्रेन में मोबाइल चार्जिंग की परेशानी पर लिखा था। लेपटाप का penetration पहले से ३-४  गुना ज्यादा दिखा(कारण यह भी हो सकता है कि ट्रेन भारत की CyberCity) जा रही थी। और डब्बों में दो चार्जिंग पाइंट भी लगा दिये गये हैं। हालांकि ४ में एक ही डब्बे के पाइट काम कर रहे थे और ८१ लोगों के बीच ये बहुत कम है…पर नही मामा से काना मामा अच्छा। कुछ तो है। वैसे ये पाइंट, बाथरूम के बगल में, डब्बे के दरवाजे के एकदम पास लगाये गये हैं…मतलब उम्मीद ये की जाती है कि यात्री चलती ट्रेन में दरवाजे के पास खडा रहे। खैर, हो सकता है आने वाले समय में हर पंखे के स्विच के साथ एक चार्जिंग पाइंट भी उपलब्ध करवाया जायेगा।

एक करामात और…स्लीपर के डब्बों में साइड की शायिकाओं में जहाँ पहले दो ही लोगों की जगह होती थीं..अब एक शायिका और फंसा दी गई है। इसके फलस्वरूप दिन में तो उस एक बर्थ पर तीन लोगों को फँसना पडता है….और सोते समय ऐसा लगता है कि ताबूत में फँसा दिया है। एक यात्री और बढने एवं सीट के नीचे जगह कम होने से सामान रखने की जगह इतनी कम पडने लगी है कि लगभग हर जगह लोगों को सीटों के बीच में सामान रखने पड रहे थे। है तो ये कमाई बढाने की ट्रिक पर सवारियों की असुविधा का पूरा ध्यान रखा गया है इसे लागू करते समय।

चलते चलते – दिवाली का मौसम अपना इस बार थोडा स्पेशल रहा। जिन्दगी में कुछ उथल पुथल टाइप्स परिवर्तन हो रहे हैं। उम्मीद करता हूं आप सब की दिवाली मंगलमय रही होगी।

हरिओम पवांर को मैने पहली बार १९९६-९७ के आसपास सुना था। वे वीर रस के कवि हैं। हम ११-१२ वीं कक्षा में थे और हमारे अंग्रेजी के अध्यापक श्री ए पी सिंह के पास इनकी गाई हुई कविताओं की कैसेट थी। “मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूँ”।
१२ वीं के बाद स्कूल से निकल गये, लेकिन उनकी कुछ कविताओं के बोल जबान पर थे। बाद में छोटे भाई ने भी उनकी कुछ कविताएं अपनी डायरी में लिखी थीं,जिनमें मुशर्रफ की आगरा यात्रा और  कंधार अपहरण के ऊपर कविताएं थी भी थीं। शायद एकाध बार कोटा दशहरा मेले में भी आये हों।
इन्टरनेट से परिचय के बाद से मैं उनकी कविताएं ढूंढने की कोशिश कर रहा था…पर असफल रहा। कल परसों घूमते हुए यू ट्यूब पर उनका यह वीडियो मिल गया। वीडियो हालांकि साफ नही है पर आवाज एकदम साफ है। हरि ओम पंवार साहब के बारे में ज्यादा जानकारी हालांकि अब भी नही मिली।
प्रसारण शायद फरवरी २००८ का है..पर यही कविता मैने १९९६-९७ में भी सुनी थी। गौर कीजियेगा,कश्मीर की हालत जैसे १० साल पहले थे…आज भी उससे जुदा नही हैं (हाल की घटनाओं के बाद तो और बिगडे हैं।)

सुनिये, “मैं घायल घाटी के दिल की धडकन गाने निकला हूं।”

अद्यतन (६ जनवरी २०१०) : दो और वीडियो

“कैसे कोई गीत सुना दे बिंदिया कुमकुम रोली के”

शहीदों को सलाम करती एक अन्य प्रस्तुति

Food for Thought – दिमाग (का) खाना

सच है कि जिन्दगी शतरंज की बिसात नही जहाँ हर कदम चलने से पहले आगे और पीछे की सौ संभावित चालों के बारे में सोंचा जाये…लेकिन जिन्दगी कटी पतंग भी तो नही कि बस हवाओं से सहारे उडे और किसी पेड पर उलझ जाये?

२/३ साल पहले IIFM में सुने एक व्याख्यान से

किताबों का भविष्य!

कल उन्मुक्त जी की इस चिट्ठी पर बडी दिलचस्प चर्चा पढने को मिली। एक तो वो दिल्ली में उनकी पसंदीदा किताबों की दुकान बुकवार्म बन्द होने से दुःखी थे और दूसरे अन्य किताबों की दुकानों पर सही माहौल ना होने को लेकर भी व्यथित थे। पढने का चलन कम होने के अलावा,टिप्पणियों में इस बात को लेकर चर्चा थी कि शायद निकट भविष्य में किताबें और अखबार छपना ही बन्द हो जायेंगे। सब कुछ electronic प्रारुप में मौजूद होगा।

पढने का चलन कम हो गया है इस बात से मैं इत्तेफाक नही रखता। चाहे वो किताबें हों या अखबार…अपने मूल रूप में (e-प्रारूप नही)। टी वी के आगमन को भी पढने के युग का खात्म बताया गया था। न्यूज चैनल अखबारों को खा जायेंगे,ऐसे कयास भी लगाये गये थे लेकिन ऐसा हुआ नही। पिछले १५ सालों के ट्रेन्ड पर नज़र डाली जाये,तो अखबारों ने अपनी प्रसार संख्या में जिस स्तर पर वृद्धि इस दौरान की है, उतनी शायद पहले कभी नही हुई। चाहे वो अंग्रेजी का टाइम्स आफ इण्डिया हो, अथवा हिन्दी के दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण। हाँ, यह जरूर है कि इन लोगों की मार्केटिंग जबरदस्त रही इस दौरान। वहीं किताबों में भी हैरी पाटर जैसी पुस्तक ने अपार सफलता इसी दौर में अर्जित की है। किताबों की दुकानों की श्रृंखलाएं मसलन क्रासवर्ड और लैण्डमार्क भी इसी समय अस्तित्त्व में आए हैं..हाँ उनका प्रारूप और माहौल चर्चा का मुद्दा हो सकता है।

कागज की अनुपलब्धता और मंहगाई, नेट पर सस्ते में अथवा मुफ्त में ई पुस्तकों की मौजूदगी आदि अपनी जगह हैं लेकिन मुझे नही लगता कि निकट भविष्य में ये कारण छपी किताबों का अस्तित्त्व खतम कर देंगे। और फिर जो मजा किताब के पन्नों की गंध में है वो भला कम्प्यूटर स्क्रीन के पिक्सेल्स और रेजोल्यूशन में कहां?

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इंडियन एक्सप्रेस में मार्च में छपा ये लेख बताता है कि वर्तमान में सुरेन्द्र मोहन पाठक के नये उपन्यास के पहले संस्करण की ५०,००० प्रतिया छपती हैं। जिन्होने सुरेन्द्र मोहन पाठक का नाम नही सुना उनके लिये- पाठक साहब हिन्दी जासूसी उपन्यास लिखते हैं, जिन्हे पाकेट बुक्स कहा जाता है और वे आज के दौर में इस श्रेणी के टाप के लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साल में ४-५ उपन्यास निकलते हैं उनके, कीमत ४० रुपये के करीब। लुगदी कागज पर छपने वाले ये उपन्यास आपको उत्तर भारत के किसी भी शहर (विशेषकर रेलवे स्टेशन और बस अड्डे)में उपलब्ध हो जायेंगे। (हाल में खबर आई है कि जल्द ही ये उपन्यास सफेद कागज पर भी आने वाले हैं)|

अपने हर उपन्यास के पहले संस्करण की पचास हजार प्रतियां शायद किसी भी हिन्दी लेखक के लिये सपना हो। कितना भी रोना रो लिया जाये कि हिन्दी पढने वाले पाठक तो हैं ही नही, हिन्दी में तो कोई किताब खरीदना पसन्द करता ही नही,पर यह सवाल भी अपने जगह पर है कि एक आम आदमी को आसानी से समझ आने वाला और विशुद्ध मनोरंजन करने वाला लेखन हिन्दी में होता कितना है?  “हिन्दी के कर्त्ता धर्त्ता ” शायद इन उपन्यासों को देख कर नाक भौ सिकोडें और इन्हे दोयम दर्जे का मानें, लेकिन  एक आम पाठक, जिसे विशुद्ध टाइमपास और मनोरंजन चाहिये, की पठन पिपासा यही उपन्यास शान्त करते हैं। इनके पाठक वर्ग में पढे लिखे वकील और प्रोफेसर से लेकर रात को गली में जागरण करने वाला चौकीदार तक होता है।

यह पाठक वर्ग बिना किसी मार्केटिंग के पिछले २०-२५ सालों में बना है…पर ये इस संभावना को जरूर इशारा करता है कि हिन्दी का कितना बडा पाठक वर्ग मौजूद है और हिन्दी में किताब लिखने की कितनी संभावनाएं है…जैसा कि मैने अपने पिछले लेख में लिखा था।

अभी हाल ही में चेतन भगत की नयी पुस्तक “Three Mistakes of My Life” पढी। एक टाइमपास किताब…बिना दिमाग लगाये पढने बैठिये, कुछ पात्र और घटनाएं आपको अपने आसपास की नजर आयेंगी…थोडा बहुत उनसे रिलेट करिये और ३-४ घंटे में खत्म करके अपने काम पर लगिये। यह पोस्ट “Three Mistakes of My Life” के बारे में नही है।

चेतन भगत की पहली किताब “Five Point Someone…”, IIT के छात्रों की जिन्दगी पर आधारित थी। देश में हर साल करीब २ लाख इंजिनीयर निकलते हैं और हर इंजीनीयर ने, प्रवेश परीक्षा की तैयारी के समय IIT का सपना जरूर देखा होता है। इस हिसाब से किताब एक बहुत बडे मार्केट को टार्गेट करती थी। किताब अच्छी बिकी। इस किताब ने एक नया ट्रेन्ड स्थापित किया और फिर कई नये-नये लेखकों की IIT, IIM और अन्य कालेजों की जिन्दगी पर आधारित कई पुस्तकें आई। कुछ पढी भी गईं, कुछ ऐसे ही निकल गईं..पर “पाँच दशमलव…” एक बेन्चमार्क बन गई।

खैर,यहां लिखने का मूल मकसद चेतन भगत पर चर्चा करना भी नही है, पर इस प्रक्रिया पर चर्चा करना है। हल्का फुल्का लेखन, युवाओं पर केन्द्रित, मध्यवर्ग पर केन्द्रित जिसमें बहुत भारी भरकम कथानक होने की बजाय आसपास की जिन्दगी के कुछ पात्र हों। थोडी सी मार्केटिंग और ब्रांडिंग। जेब को सूट करती कीमत। एक फार्मूले जैसा। (“Three Mistakes of My Life” ९९ रुपये की है..हालांकि कीमत कम करने के चक्कर में किताब की छपाई और बाइंडिंग एकदम घटिया कर दी गई)।

पिछले कुछ दिनों से सोंच रहा हूं कि हिन्दी में अगर इस तरह की किताबें आने लगें, तो उन्हे कितना पडा पाठक वर्ग मिल सकता है। कितना बडा बाजार है? क्या इस तरह का लेखन हिन्दी में अभी होता भी है?

मुझे लगता है कि हिन्दी में इस तरह की किताबों का बडा बाजार होगा। हिन्दी के २-३ अखबार अपनी-अपनी पाठक संख्या १ करोड से ऊपर बताते हैं। क्या इन पाठकों में से एक प्रतिशत भी हिन्दी में हल्के फुल्के लेखन को नही पढाना चाहेंगे। पिछली जुलाई में हैरी पाटर की सातवीं किताब रिलीज होने के समय हिन्दी में उसकी पांचवी किताब का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ था और हाथों-हाथ ५००० प्रतियां बिक गईं थी थी। हैरी पाटर पुस्तकों की पहली पाँच किताबों के हिन्दी अनुवादों की अब तक १ लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं, जिनकी कीमत २००/- से ३५०/- तक थी। खबर यहां पढें। इन्हे प्रकाशित करने वाले मंजुल पब्लिशिंग हाउस एवं हिन्दी के अन्य प्रकाशक इन प्रक्रिया को किस तरह देखते हैं, पता नही…लेकिन अगर वो थोडी रुचि लें तो शायद अच्छा खासा मार्केट बन सकता है कई नये लेखक उभर सकते हैं। (हिन्दी के वर्तमान लेखकों की अपनी जानकारी बहुत अच्छी नही है।)

पिछले कुछ दिनों से मैं कमलेश्वर की “कितने पाकिस्तान” भी पढने की कोशिश कर रहा हूं। इस पुस्तक का काफी नाम सुना था और बहुत समय से पढने की इच्छा थी। मई अंत में नागपुर स्टेशन पर खरीदी, पर अभी तक आधी ही पढ पाया हूं। दिक्कत ये है कि एक बार में ३-४ पेज से ज्यादा नही पढ पाता। क्योंकि पढ कर उसे सोंचना पडता है, मनन करना पडता है और फिर पचाना पडता है। चेतन भगत नुमा पुस्तकों में आपको प्रोसेसिंग कुछ नही करनी पडती और हम जैसे कम समझ लोगों को भी आसानी से समझ आ जाती हैं…नतीजा टारगेट मार्केट में बढोतरी। अंग्रेजी पुस्तकों में रुचि रखने वाले भारतीय युवाओं से ही पूंछ लीजिये, कितने लोगों ने चेतन भगत को पढा है …और कितने लोग विक्रम सेठ को।…अन्तर पता चल जायेगा।

अब आते हैं इस पोस्ट के मूल मकसद पर। मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठाकारों से में कई लोगों में इस तरह का लिख पाने की संभवनाएं हैं। जिनकी भाषा और मुद्दे बहुत भारी नही होते, पढने-समझने में आसान होते हैं , आसपास की ज़िन्दगी से जुडे होते हैं। कई चिट्ठाकारों की कई पोस्ट्स इतनी बेहतरीन हैं कि उन्ही का संकलन कर के एक किताब छपवाई जा सकती है। तो बताइये, कैसा आइडिया है, और आप कब किताब लिखना शुरू कर रहे हैं।

सबक

  • कई काम दूर से बहुत कठिन दिखते हैं,लेकिन एक बार शुरू कर दें तो रास्ते खुद-ब-खुद बनते चले जाते हैं।
  • असंभव कुछ नही होता। बस थोडे से अतिरिक्त प्रयास की जरूरत होती है।
  • There is always scope for improvement.
  • प्राथमिकताएं तय करना बहुत जरूरी है, अन्यथा काफी समय उन कार्यों में नष्ट हो जाता है, जिनकी जरूरत नही थी ।
  • कब क्या किसे कह रहे हैं, इस बारे में बहुत सावधान रहना चाहिय। ना जाने कब कौन सी बात उलटी पड जाये ।
  • Never React, Always Respond. तुरंत प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिये। समय लेकर ठंडे दिमाग से सोंच कर अपनी बात कहनी चाहिये। (‘चक दे इंडिया’ में एक संवाद था, ‘हर लडाई उसी समय नही लडी जाती, कुछ बाद के लिये भी छोड देना चाहिये’।)
  • Nobody is indispensable. हमारे पहले भी दुनिया थी और हमारे बाद भी दुनिया चलेगी।
  • हर काम, छोटे सा छोटा, अथवा बडा से बडा, कुछ सीखने का अवसर देता है, बशर्ते हम सीखने को तैयार हों।
  • Never ever believe things which looks too obvious.
  • Never judge people, based on first impression or their looks. Take time.
  • COMMUNICATE. विवाद कितने भी हो जायें, संवाद बना रहना चाहिये। अक्सर एक फोन काल कई सारी गलतफहमियों को दूर करने के लिये काफी होती है।

इनमें से कुछ सबक खुद ठोकर खाकर सीखे हैं, कुछ दूसरों को देख कर। ये बात अलग है कि ये जानने और दिमाग में होने के बावजूद अक्सर गलतियां कर बैठते हैं। यहां लिख दिये हैं ताकि सनद रहे।

सुबह सुबह किसी बात पर मूड खराब हुआ तो यह “कूडे के ट्रक वाला सिद्धांत” याद आ गया। कुछ दिन पहले एक ई पत्र में प्राप्त हुआ था। सार कुछ इस तरह से है।

क्या आप एक खराब ड्राइवर, किसी अभद्र कर्मचारी, किसी बदमिजाज दुकानदार के चक्कर में अपना दिन खराब कर लेते हैं? सडक चलते आपसे किसी ने कुछ कह दिया, कोई दुकानदार बद्तमीजी से पेश आया, रेस्तरां में गये और सर्विस अच्छी नही हुई आदि आदि? एक अच्छे/सफल इन्सान का गुण यह है कि वह किस तरह से ऐसी गैरजरूरी बातों को नज़रअंदाज करके अपना ध्यान जरूरी कामों पर लगाये। कूडे के ट्रक का सिद्धांत कहता है कि –

“कई लोग कूडे से भरे ट्रक की तरह होते हैं। वे अपने साथ साथ क्रोध, भय, घृणा, नैराश्य का कचरा अन्दर में समेटे चलते हैं। जैसे जैसे यह कचरा उनके अन्दर भरता चला जाता है, उन्हे इसे कहीं फेंकने की जरूरत महसूस होती है। ठीक कचरे से भरे ट्रक की तरह। हो सकता है बदकिस्मती से आज आप उनके रास्ते में आ गये और उन्होने इसे आपके ऊपर फेंक दिया।

तो अबकी बार कोई अपना कचरा आपके ऊपर इस तरह फेंके, तो इसे दिल पर मत लीजिये। सामने वाले पर तरस खाइये। मुस्कुराकर उसे नजरंदाज कीजिये और खुश रहिये। आप ज्यादा अच्छा और प्रसन्न महसूस करेंगे। और हाँ, ये भी देखें कि कितनी बार हम अपना गुस्सा दूसरों पर उतारते हैं और कचरे के ट्रक की तरह बर्ताव करते हैं।”

ई मेल में इसके रचियता का नाम था, David J Polly. थोडा गूगल किया तो पता चला कि “The Law of Garbage Truck” डेविड साहब का ट्रेड मार्क है। वे एक ख्यातनाम वक्ता और लेखक हैं। कचरे के ट्रक वाली कहानी विस्तार से आप यहाँ पढ सकते हैं, अंग्रेजी में। इस पर एक वेबसाइट भी है। यहाँ और यहाँ डेविड साहब के ब्लाग भी हैं।

सिद्धांत सुनने में अच्छा लगता है ना। भारतीय दर्शन पर नज़र डालेंगे तो हमारे यहां इस तरह का दृष्टांत भगवान बुद्ध के प्रेरक प्रसंगों में मिलता है। जब एक व्यक्ति बुद्ध को खूब गालियां देता है पर वो जरा भी विचलित नही होते। शिष्य के पूंछने पर उसे समझाते हैं कि भई जब वो गालियां मैने स्वीकार ही नहीं कीं तो वो तो उसी के पास रही ना। मुझे लगी ही नही। मुझे उससे क्या फर्क पडता है।

सो नया तो कुछ भी नही है, बचपन से पढते आ रहे हैं, जीवन में उतार सकें तो बात बने।

तेलुगु नव वर्ष (युगादि) पर दोस्तों के साथ श्रीसैलम जाने का मौका मिला जहाँ भारत के बारह ज्योतिर्लिंग में से एक और शक्तिपीठ हैं। सुबह सवेरे की बस पकड कर छः घंटे के सफर के उपरांत श्री सैलम पहुँचे, ये आपने पिछली पोस्ट में पढा। अब आगे….

बस से उतर कर जो आगे का नजारा किया तो भीड देख कर भाई लोग भौंचक रह गये। कन्धे से कन्धा सटा कर चलते लोग। मुझे पूर्णिमा के आसपास गिरिराज जी(गोवर्धन, मथुरा) की परिक्रमा याद आ गई…वैसी ही भीड, रैले का रैला चलता हुआ..२१ किलोमीटर (सात कोस) तक। यहां फर्क ये था कि बस एक किलोमीटर आगे मंदिर तक जाना था…पर दिक्कत ये कि हमें कुछ पता नही था। मित्र रामा एक बार आया था पर इस भीड को देख कर उसका सारा दिशा ज्ञान धरा रह गया। भीड के रेले के साथ साथ चलते हुए मंदिर के पास तक पहुंछे तो बताया गया कि थोडा गलत आ गये हैं…कुछ पीछे से एक मोड मुडना था और दर्शन वाली लाइन उधर ही थी। घूमते फिरते उधर पहुँचे। अभी तक सडक पर चलती भीड देखी थी…अब दर्शन की लाइन देख कर सांस अटक गई। फ्री दर्शन की लाइन का तो कोई पार नही दिख रहा था और ५० रुपये वाले दर्शन में जो मारा मारी हो रही थे वो देखी नही गई। हार कर एक जगह लाइन में लगे जहां सौ रुपये वाले टिकट मिल रहे बताये गये। सबसे बडी मुश्किल यह कि सूचना देने वाला कोई नही। लोग एक दूसरे से पूंछते और एक दूसरे को जवाब भी दे देते। थोडी देर बाद पता चला कि ये १०० रुपये वाली खिडकी तो बंद पडी है..और टिकट नही मिल रहे हैं। फिर भी खडे रहे। किसी तरह खिडकी तक पहुँचे तो बताया गया कि टिकट अब शाम को ६ बजे मिलेंगे।

३५० वाला…? शाम को।

६०० वाला….? शाम को।

१००० वाला…? ह्म्म्म आपको चाहिये?..मिल सकता है..। नही..शाम को!

मन किया कि आसपास घूम कर दर्शन किये बगैर की लौट जायें..पर नही..आये हैं तो इनसे मिल कर ही जायेंगे। हमें हैदराबाद के अपने पिच्चर हाल याद आये..जहां से हम कभी खाली हाथ नही लौटे चाहे ४० की टिकट ८० में खरीदी हो। अफसोस यहां कोई ब्लेक नही हो रही थी।

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(भीड का पहला नजारा)

मुझे समझ नही आ रहा कि क्या मन्दिर में पैसे देकर दर्शन वाली व्यवस्था होनी चाहिये? या सब एक समान हों और दर्शन की कोई बेहतर व्यवस्था हो। माना कि गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नही जा सकते लेकिन कम से कम इंतजाम तो ठीक किये जा सकते हैं? खडे रहने की व्यवस्था, छाया, सूचना एवं जानकारी आदि आधारभूत व्यवथाएं तो प्रशासन उपलब्ध करवा ही सकता है..या फिर सोंचा हुआ है कि राम जी की मरजी राम जी का खेत। भगवान का घर है..यहां हम क्या कर सकते हैं। खैर ये हमें बाद में पता चला कि युगादि का त्यौहार होने की वजह से उन २-३ दिनों में आम दिनों से २-३ गुनी भीड थी अन्यथा समान्यतः इतनी अव्यव्स्था नही होती। फिर भी चूंकि ये बात पहले से पता होती है सो बेहतर इनतजाम तो किये ही जा सकते हैं।

खैर..सोंचा गया कि भगवान से तो शाम को ही मिलेंगे..आसपास घूम लियी जाये। पहले मंदिर का एक चक्कर काटा, इस आस में कि बेकडोर एंट्री का कोई इंतजाम हो। असफल। मंदिर के पीछे प्रसाद वितरण काउंटर थे जहाँ से पाँच-पाँच रुपये के लड्डू खरीदे और स्वयं ने भोग लगाया। बहुत स्वादिष्ट। फिर होटल में खाना खाया और सोंचा कि रात को लौटने के लिये आखिरी बस में टिकट करवा लेते हैं।बस अड्डे पहुँचे तो वहां एक सूचना चिपकी हुई थी…फलां-फलां-फलां दिन बसों के अग्रिम आरक्षण बंद रहेंगे। अव्यवस्था का एक और नमूना। जिस समय सबसे ज्यादा भीड रहे, सबसे ज्यादा जरूरत हो, तब सेवाएं बन्द कर दो। पब्लिक अपने आप निपटेगी।

खैर, अब आसपास घूमने निकलना था। घूमने के लिये २१० रुपये में एक आटो किया गया। तय हुआ कि वो हमें साक्षी गणपति, शिखरम एवं अन्य २-३ मंदिर दिखायेगा। हम इस मुगालते में थे कि आसपास ही कोई झरना भी है,जो कि इस २१० वाले पैकेज में शामिल है। तेलुगु में बात हुई थी सो रामा से कहा कि एक बार कनफर्म कर लो। उसने भी हाँ-हूँ करके टाल दिया। खैर, आटो में बैठकर चले। साक्षी गणपति और एक अन्य मंदिर तो २-३ किलोमीटर की दूरी पर ही निकले। हमें लगा कि बेटा आटो वाले ने ठग लिया। उसके बाद गये एक अन्य स्थल पर, जिसका नाम नही पता चला। वहां काफी नीचे सीढियां जाती थीं और नीचे पहाड में से पानी निकल रहा था। लोकेशन एक छोटे मोटे झरने जैसी ही थी,लेकिन सूखा हुआ। शायद बरसात में आते तो नजारा कुछ और होता। यहाँ खत्म करके पूंछा अब कहां..तो बोले शिखरम। यह इस पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी बताई जाती है। यहाँ सबसे ऊपर नंदी की मूर्ति स्थित है। और वहां से श्रीसैलम कस्बा और मुख्य मंदिर भी नजर आता है। नंदी के दोनों सींगों के बीच में से मंदिर को देखने की परंपरा है, शुभ माना जाता है।लोग देख रहे थे और हम लोगों को देख रहे थे। यहाँ से नीचे उतरे तो पता चला कि यह आटो डील का आखिरी पडाव था और अब वापस हमें श्रीसैलम कस्बा जाना था। झरने के बारे में पूंछा तो बताया गया कि वो तो यहाँ से ६०-७० किलोमीटर दूर है, वो इस डील का हिस्सा नही था!

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(शिखरम से शहर और कृष्णा नदी)

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(नंदी के इन दो सींगों के बीच में से मंदिर देखने की परंपरा है)

वापस पहुँचे करीब पाँच बजे। अभी छः बजने में एक घंटा था पर फिर भी टिकट मिलने के संभावित स्थल पर जाकर भीड में खडे हो लिये। इस बार भी किसी को पता नही था कि टिकट यहीं मिलेंगे अथवा नही। मिलेंगे तो कितने रुपये वाले मिलेंगे। पर हम डटे रहे। अभी सडक पर ही खडे थे और टिकट खिडकी तक पहुँचने वाली रेलिंग का दरवाजा नही खुला था। पौने छः के करीब वो दरवाजा खुला और जो भगदड मची कि अलवर में पिच्चर हाल के बार हुई धक्का मुक्की और बेल्टें याद आ गईं। कुदते फांदते लाइन में लगे और टिकट खिडकी खुलने का इंतजार करने लगे। आखिरकार खिडकी खुली और लाइन सरकना शुरू हुई। टिकट खिडकी के करीब पहुँचकर पता चला कि वहां मात्र साढे छः सौ रुपये वाले टिकट मिल रहे थे ये “अभिषेकम” के टिकट थे। अन्य किसी टिकट के बारे में जानकारी नही थी और दर्शन तो आज ही करने थे तो टिकट खरीदे गये..जिसमें २ नारियल, एक गुलाबजल की शीशी और एक गमछा साथ में मिला। मंदिर के अंदर पहुँच कर ऐसा लगा कि आधा लडाई फतह हो गई है। पर यहां अन्दर जाकर कहां जाना है यह कोई जानकारी नही थी। हम अलग तरफ से घुसे थे, दर्शन की लाइन (फ्री और पचास रुपये वाले) अलग जा रही थी। एक जगह कुछ लोगों का झुण्ड दिखा जो हमारा वाला ही सामान लिये हुए थे ..उनसे पूंछा तो पता चला कि हमें भी यहीं बैठना था। यह जगह गर्भगृह से थोडा हट कर थी और यहां हमें भगवान का अभिषेक करना था। आखिरकार एक सज्जन आये और उन्होने लाइन लगवाई..सात सात के ग्रुप में अभिषेक करना था भगवान का। उसके पहले ऊपरी वस्त्र (शर्ट और बनियान ) उतारने का आदेश मिला। सो वो उतार कर साफी गले में डाल ली गई। हमें ये चिन्ता थी कि हम मुख्य मंदिर में दर्शन कर पायेंगे या नही सो अभिषेक करवाने वाले सज्जन से ही पूंछा कि भाईसाहब, मुख्य मंदिर के दर्शन इस पैकेज में शामिल हैं या नहीं। उन्होने हाँ कहा तो तसल्ली हुई। यहां अपना नम्बर आया तो गुलाबजल से भगवान का अभिषेक किया गया, एक नारियल फोडा गया और चल दिये। दर्शन के लिये किधर से जाना है अभी भी यह पता नही थी। एक पुलिसवाले से पूंछा तो उन्होने शार्टकट बताया और हमने एक दरवाजा पार करके सीधे अपने आप को मुख्य मंदिर के अन्दर पाया। चूंकि मंदिर का अंदरूनी भाग बहुत छोटा था और पब्लिक बहुत ज्यादा, सो गर्मी औए उमस भयंकर थी। कुछ AC लगे हुए दिखे पर काम नही कर रहे थे। हमने सोंचा कि हमें तो यहां से चन्द पल में चल देना है, बेचारे भगवान जी का क्या हाल होता था, जो हमेशा यहीं रहते हैं। एकदम मुख्य गृह तो और भी बहुत छोटा था और अंधेरा भी। पंडित लोग खडे थे जो किसी को २ सेकेंड से ज्याद मत्था नही टेकने देते । आप सिर झुकाइये..पीछे से वो आपको झुकायेंगे और उठा देंगे। हमने सिर टिकाया और जो पीछे से धक्का लगा तो भट्ट से सिर टकराया शिवलिंग से। हमने शिवजी से माफी मांगी और निकल लिये। इसके बाद ज्यादा समय नही लगा, शक्तिपीठ के दर्शन किये और थोडी ही देर में हम मंदिर के बाहर थे। बाहर अभी भी भीड जोरदार थी सो हमने निश्चय किया कि अगर भीड में अलग अलग हो गये तो बस स्टेण्ड के पास मिलेंगे। हमें चिन्ता यह थी कि भीड की वजह से लौटती बस में जगह नही मिलेगी। पर ऐसा कुछ नही हुआ। जिस बस में लौटे वो लगभग खाली आई और हम सीट पर लम्बलेट होकर आये। शायद हैदराबाद में हमारे सिवा सबको पता था कि पर श्रीसैलम में कर्नाटक और महाराष्ट्र से आये हुए लोगों की भीड होती है सो अभी ना ही जाया जाये तो बेहतर।

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(शाम को दर्शन के समय भीड)

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पोस्ट कुछ ज्यादा लम्बी हो गई। इस पोस्ट को कुल तीन भागों में बांटने का विचार था पर महसूस कर रहा हूं कि पार्ट में पोस्ट ’कमिट’ तो कर देता हूं..पर एक भाग लिखने के बाद दूसरा भाग लिखना लम्बा खिंच जाता है (या बिल्कुल ही टल जाता है) जो कि गलत है। कम से कम दो पोस्ट्स के दूसरे भाग इस चिट्ठे पर आने की राह देख रहे हैं पर नही आ पा रहे। प्रयास रहेगा कि सीरियल पोस्ट के चक्कर में ना ही पडा जाये।

पंकज उधास साहब के साथ एक शाम का जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट में किया था। मेरे मित्र मुरली ने कुछ गज़लें अपने मोबाइल पर रिकार्ड की थीं, यू ट्यूब पर उन्हे अब चढा पाया हूँ। आप भी सुनिये।

पहली है, “हुई मंहंगी बहुत शराब, थोडी थोडी पिया करो”। आपने शायद पहले भी सुनी होगी। पर यहाँ लाइव प्रस्तुति में बाँसुरी, तबले, वायलिन और मैंडालिन की जुगलबंदी बहुत जबरदस्त बन पडी है। गज़ल ना सुनें …बस संगीत सुनें तो भी काम चल जायेगा। 🙂 बाँसुरी पर राकेश चौरसिया जी बैठे हैं। बाकि कलाकारों के नाम याद नही रहे। इस तरह की जुगलबंदी मुझे बहुत पसंद है। अनूप जलोटा के कुछ कैसेट्स में इस तरह की जुगलबंदी सुनने को मिलती है। जगजीत सिंह भी कभी कभार प्रयोग करते हैं। और शायद लाइव प्रस्तुतियों की USP भी यही होती है।

इसके बाद सुनिये, “सोने चाँदी जैसा रंग है तेरा, चांदी सोने जैसे बाल” 🙂

वीडियोन की गुणवत्ता थोडी खराब है…कैमरे की पहुँच इतनी ही था, हाँ आवाज आपको एकदम सही सुनाई देगी। (सिवाय बीच बीच में हमारी आवाज और दाद के)।

कुछ और वीडियो – चिट्ठी आई है, जियें तो जियें कैसे

वर्डप्रेस में वीडियो तो आराम से चढ गया, यू ट्यूब की कृपा से। पर आडियो कैसे चढायें ये अभी समस्या बना हुआ है। वर्डप्रेस आडियो फ़ाइल होस्ट करने के अलग से पैसे माँग रहा है, जो फिलहाल मैं देने से रहा। और कोई जगह सुझा सकते हैं जहाँ फोकट होस्ट कर सकूं? वर्डप्रेस फोरम पर यहाँ दी गई सलाह के मुताबिक होस्टेड फाइल का URL शायद मुझे कुछ इस तरह मिलना चाहिये। http://www.hostname.com/meri-file.mp3

पिछली दो पोस्ट्स में मैने बचपन की कुछ बातें लिखी थीं..मसलन बचपन के टोटके और बचपन की तमन्नाएं। एक और चीज़ जिस पर मैं लिखना चाहता था वो थे..बचपन के डर और चिन्ताएं। पर लिखते लिखते रह गया। कारण यह, कि अगर सबको पता चला जाता कि मैं बचपन में रात में अकेले घर की छत पर या बगीचे में  जाने से डरता था या रात को पापाजी पान लाने भेजते थे तो मुहल्ले की अंधेरी गली, एक सांस में फर्राटे से दौडते हुए पार करता था तो कितनी इन्सल्ट होती ना मेरी। बहादुर बच्चे भी भला कहीं डरते हैं? नही ना। इसीलिये मैने किसी को नही बताया। खैर…डर नही, लेकिन बचपन की एक बडी चिन्ता आपके साथ बांटते हैं, वो ये ..कि बेटा बडे होकर क्या करेंगे?

बडे होकर क्या करेंगे/बनेंगे…ये अपने लिये सबसे ज्यादा चिन्ता का विषय हुआ करता था। एक समय था, शायद ७-८ साल की उम्र में, जब में अपने आसपास लोगों को काम करते देखता और बस यह तुलना किया करता था कि मैं यह काम कर पाऊंगा या नही। जो काम करते हुए देखता था वहां अपने आप को फिट करता था..और पता चलता था कि इनमें से शायद कोई भी काम नही कर पाऊंगा। कुछेक बानगी…

  • सब्जी वाला नही बन सकता…मुझे तराजू से तौलना नही आता।
  • दर्जी नही बन सकता…नाप लेना नही आता, सिलना भी नही आता।
  • ड्राइवर नही बन सकता…गाडी तो क्या साइकिल भी नही चला पाता। और मुझे तो रास्ता भी याद नही रहता।
  • अपनी कपडे दुकान पर भी नही बैठ सकता…ना तो मुझे कपडा नापना और काटना आता..और ना ही इतने सारे कपडों के दाम याद रहते।
  • कारीगर नही बन सकता…प्लास्तर करना और पत्थर काटना नही आता।
  • नाई की दुकान नही खोल सकता..बाल काटना भी नही आता।

बोले तो, हर जगह असफलता। सोंचिये…कैरियर का कित्ता बडा सवाल मेरे आगे मुँह बांये खडा था..और कोई काउन्सलिंग नही।

खैर, ये सवाल तो अपने आप से थे, सो जवाब दें, या ना दें..सब चलता था। लेकिन स्कूल आकर यह समस्या और बढ गई। मास्टर जी कक्षा में पूंछे, तो भी ये बडा भारी प्रश्न हुआ करता था। मास्टर जी कक्षा में आयेंगे…और सब बच्चे एक एक करके बतायेंगे कि वो बडे होकर क्या बनेंगे। टीचर जी को तो खुश रखना भी जरूरी था (ये काम हमें बचपन से आता था), तो अलग अलग समय पर, अलग अलग अध्यापक जी को ध्यान में रखते हुए हम तरह तरह के जवाब देते थे

  • सर, सबसे पहले तो मैं इस देश का एक अच्छा नागरिक बनना चाहूंगा। (तालियां-तालियां)
  • मैं तो अध्यापक बनूंगा..आप की तरह। (एक एक को मुर्गा बना दूंगा)
  • राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री बनूंगा- जी हाँ…कहने में अपना क्या जाता है।
  • डाक्टर-इंजीनियर-वैज्ञानिक, गणित अथवा विज्ञान की क्लासानुसार– ये जवाब थोडा बडे होने के बाद पकडे और फिर इन्हे ही पकडे रहे।

ये तो हुई बचपन की बात। लेकिन जरा गंभीर होकर सोंचे, तो क्या हम बडे होने के बावजूद भी कभी अपनी मर्जी यह तय कर पाते हैं कि हमें क्या बनना है अथवा क्या करना है? क्या यह सोंच लेने के बाद , कि मुझे यह करना है, हम वो सब कर पाते हैं। सोंचियेगा, क्या हम आज वही कर रहे हैं जो हमने हमेशा से करने का सोंचा था? (अगर सोंचा था तो)। या फिर हालात,परिस्थितियों से लडते भिडते आज जहां हैं वहां पहुंच गये हैं किसी तरह और बस जमें हुए हैं वहीं पर?

और हाँ, जो हम नही कर पाये, वो बच्चों सें अपेक्षा कर ही सकते हैं। अच्छा चिन्टू बेटा…अंकल को बताओ तो बडे होकर क्या बनोगे!!!

पंकज उधास के साथ एक शाम

आजतक मैने सिर्फ एक संगीत कार्यक्रम को लाइव देखा है…पलाश सेन का यूफोरिया बैण्ड। इंजिनियरिंग के समय कालेज में आया था और चार घंटे तक खडे खडे हम झूमते-नाचते-कूदते रहे थे। बस उसके बाद कोई मौका ही नही लगा। पिछले दो साल में यहां हैदराबाद में गुलाम अली साहब और जगजीत सिंह जी आकर अपनी प्रस्तुतियां देकर चले गये पर हम टिकट का इंतजाम नही कर पाये और उन्हे नही सुन पाये। ऐसे में जब हमें पंकज उधास जी के शो के टिकट, घर आफिस बैठे अनायास ही प्राप्त हो गये (Thanks to my Super-Boss) तो अपनी तो बल्ले बल्ले हो गई। हालांकि पसंदीदा गज़ल गायकों की सूचि में पंकज उधास बहुत बाद में आते हैं पर पहली बार किसी गज़ल गायक को लाइव सुनने का मौका तो नही छोडना था। वे यहां APTDC द्वारा आयोजित तीन दिवसीय “Golconda Festival” के आखिरी दिन की शाम बनाने आये थे। वैसे तो हमारे पास तीनों दिन की प्रस्तुतियों के टिकट थे जिनमें राहुल शर्मा (पं शिवकुमार शर्मा जी के सुपुत्र) का प्यूज़न संगीत और एक शास्त्रीय नृत्य की शाम भी शामिल थे, पर बदकिस्मती से, व्यस्तताओं के चलते..पहले दो दिन नही जा सके।

कार्यक्रम का स्थल था तारामती-बारादरी जो हैदराबाद से थोडा बाहर स्थित है। थोडा बारादरी के बारे में। तारामती बारादरी (तारामती की बारादरी), गोलकुंडा के सातवें सुल्तान अब्दुल कुतुब शाह ने बनावायी थी, अपनी प्रित नर्तकी तारामती के लिये। एक छोटी से पहाडी पर बनी इस इमारत में बारह दर (दरवाजे) है। यहां तारामती नृत्य करती थी और कहते हैं कि सुल्तान गोलकुण्डा के किले में बैठा उसे सुनता/देखता था (अगर देख पाता था तो वाकई नजर थी बन्दे की…गोलकुण्डा किला यहां से काफी दूर एक अन्य पहाडी पर है।)

तो यहाँ, तारामती-बारादरी में हमें २० अप्रेल की शाम को सवा दो-ढाई घंटे पंकज उधास की महफिल में गुजारने का मौका मिला। ओपन एयर थियेटर, हल्का सा ठंडा-गरम माहौल, आसमान में लगभग पूरा चांद और सामने पंकज उधास और उनकी टीम….भई अपनी तो शाम बन गई। लाइव गजल सुनने का यह पहला मौका था और हालांकि पंकज उधास की गाई ४-६ गजलें ही मुझे पसंद हैं….कार्यक्रम मुझे बहुत पसंद
आया। टिकट फोकट में मिल गये थे पर पैसा लगा कर जाते तो भी गम नही होता।

उस शाम को दो कार्यक्रम थे, एक नृत्य नाटिका और दूसरा शाम-ए-गजल। पहुँचने में थोडी देर हो गई थी। पहुंचे और घूम फिर कर, तीन बार जगह बदल कर (यहां से सही नही दिख रहा…, यहां आगे लम्बे लोग बैठे हैं…, यहां स्पीकर बहुत पास हैं…आदि आदि करके) अपनी सीट कब्जाई, तब तक नृत्य नाटिका काफी निकल चुकी थी। दूसरी बात…वो तेलुगू में थी। नृत्य चाव से देखा, नाटिका को समझने का प्रयास भी किया। शायद भगवान विष्णु-लक्ष्मी जी का विवाह और राजा कृष्ण्देव राय से संबंधित कोई प्रसंग था। राजा कृष्णदेव राय ने तेलुगु साहित्य को बढावा देने में बहुत योगदान दिया है। एक और पहला वाकया। इसके पहले कोई नृत्य नाटिका भी नही देखी थी न लाइव ना रिकार्डेड 😉 ।

(नृत्य नाटिका की समाप्ति, बीच में लक्ष्मी-नारायण खडे हैं, ब्रह्मा जी भी पहचान में आ रहे हैं)

चूंकि पंकज उधास थे, सो होश, मदहोश, साकी, शराब तो होने ही थे। कार्यक्रम की शुरुआत उन्होने की इस गजल से “ये अलग बात है साथी, कि मुझे होश नही..” पहली बार सुनी थी और गज़ल में रवानगी होने के बावजूद बहुत जमी नही। शायद माहौल बनाने की को्शिश कर रहे थे। अगली गजल थी “दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है…”।बहुत समय बाद ये गजल सुनी और खूब पसंद आई। इसके पहले पता नही मैने कहां सुना था इसे…और मुझे ये भी पता नही थी कि इसे पंकज उधास ने भी/ही गाया है।

अगली गजल उन्होने ली कुछ समय पहले आये उनके अल्बम जश्न से । बोल “दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना…”। एक बेहतरीन गजल। बहुत सुन्दर बोल। यह मैने इससे पहले कभी नही सुनी थी और अगर इस शाम में नही आता तो शायद सुन भी नही पाता। ये गजल मुझे इस शाम की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति लगी (जी हाँ, ‘चिट्ठी आई है..’ भी थी, पर उससे भी अच्छी)। गजल चार पीढियों की तुलना करती है..हमारे दादा, पिताजी, हम खुद और आने वाली नस्लें। शुरुआत होती है दादाजी के जमाने से जब सुख दुःख मिल बांत कर बिताये जाते थे चाहे वो अपना हो या बेगाना और फिर अपने साथ बहाती ले जाती है। इस गजल को मेरे मित्र मुरली अपने मोबाइल में रिकार्ड नही कर पाये पर हमने मैने इसे नेट पर ढूढने की कोशिश की और ढूंढ भी लिया। मुश्किल यह है कि ई स्निप से यहां वर्डप्रेस पर गाना शायद चिपकता नही है। और कोई तरीका सूझ भी नही रहा। फिलहाल इसे यहां से सुनें (गाना नं 8)। कोशिश करूंगा कि इसके बोल भी टाइप करके यहां चिपका सकूं। एक और पहला वाकया। इससे पहले आजतक मैने अपने ब्लाग पर कोई गीत भी नही सुनावाया। 🙂

अब तक पब्लिक थोडी अधीर हो चुकी थी और शायद आगे की पंक्ति से एक सज्जन “चिट्ठी आई है..” चिल्लाये (बाद में लगा कि शायद काफी पब्लिक यही सुनने आयी थी)। पंकज बोले..”साहब चिट्ठी भी आयेगी..जरा सब्र कीजिये। आजकल ई-मेल का जमाना है, कोई सब्र ही नही करता।” आखिरकार चिट्ठी ४-५ गज़लों के बाद चिट्ठी भी आई। इस बीच उन्होने अपनी लोकप्रिय गजलें “चांदी जैसा रंग है तेरा…”, “थोडे आहिस्ता कीजिये बातें..”, “जियें तो जियें कैसे…” पेश की। साथ ही कुछ अनसुनी और अत्यंत मद्धम गजलें भी (जिनके बोल याद नही रहे)। पर जब चिट्ठी आई तो उसमें इतना मजा नही आया। दरअसल उन्होने इसे शुरू किया शेर “मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार से…”। मैं
इसे भांप नही पाया। मुरली ने कहा..वही है? रिकार्ड करें? मैं बोला नही..शायद कोई और है। और फिर अचानक शुरू हो गये। मुझे लगा था कि इसे पहले थोडा सा खींचेंगे…आलाप लेंगे, लेकिन उन्होने अचानक शुरू कर दिया। बीच में भी जहां लगा कि थोडा रुक कर खींचेंगे…पर ऐसा हुआ नही। शायद इस गाने से अपेक्षाएं ज्यादा थीं..सो उतना मजा नही आया।

करीब सवा दस-साढे दस बजे तक कार्यक्रम चला। इस दरमियान कुछ और लोकप्रिय गज़लें और कुछ के सिर्फ मुखडे मसलन- “ऐ गमे जिन्दगी कुछ तो दे मशविरा…”, “हुई मंहगी बहुत शराब..”,”आदि सुनाये। कार्यक्रम की समाप्ति उन्होने की “मोहे आई न जग से लाज, मैं इतना जोर से नाची आज…कि घुंघरू टूट गये” से। इसे मैने पहले अनूप जलोटा की आवाज में सुना था। सोंच सकते हैं कितना अलग लगा होगा।

एक बात जो मैने महसूस की वो ये कि मुझे लगता है कि अगर गजल गायक, अथवा कोई भी गयाक बीच बीच बीच में सामने बैठी जनता से संवाद स्थापित करता रहे तो कार्यक्रम और दिलचस्प लगेगा। पंकज एक-दो बार बतियाये , चांदी जैसा रंग है तेरा के पहले एक चुटुकला भी सुनाया पर बाकी समय शुक्रिया-Thank You तक सीमित रहे। इसके अलावा …अगर कहीं कहीं पर पब्लिक को भी गाने अथवा ताली की थाप में साथ ले ले तो मजा दोबाला हो जाये। हालांकि ये प्रक्रिया पब्लिक की तरफ से शुरू होनी चाहिये और हैदराबाद की पब्लिक से में यह अपेक्षा नही करता। यहां तो ज्यादातर लोग पिच्चर हाल में भी सीटी भी नही बजाते। बहुत डीसेंट पब्लिक है।


(हमारी सीट से मंच का दृश्य। पृष्ठभूमि में ऊपर जो रोशनी में इमारत दिख रही है, वो तारामती की बारादरी है।)

और हां, अगले शनिवार को (२६ अप्रेल) यहीं तारामती बारादारी में मरहूम शायर मखदूम मोहिउद्दीन साहब की कविताएं/गज़लें तीन विभिन्न विधाओं अभिनय, नृत्य और संगीत के द्वारा प्रस्तुत की जायेंगी। (पम्फलेट के अनुसार “Renowned Poet Late Maqdoom Mohiuddin’s poetry interpreted in three different performing art forms, by an Actor, a Dancer and a Musician”). मखदूम साहब से अपना थोडा सा परिचय मात्र यूनुस भाई के ब्लाग के जरिये है…देखते हैं जा पाते हैं क्या शनिवार को।

श्रीसैलम यात्रा

हैदराबाद आये दो साल पूरे होने को आये पर आंध्रप्रदेश की कोई जगह देखने का मौका नही मिला था अब तक, सिवाय विशाखापट्टम के जहां किस्मत से २००६ में एक दोपहर बिताने का मौका मिला था। हैदराबाद को नही गिन रहा हूं यहां। २-३ बार कार्यक्रम बनाने की सोंची…पर सोंचते ही रहे गये। वो कार्यक्रम किसी नई पोस्ट के विचार की तरह अथवा ड्राफ्ट पोस्ट्स की तरह दिल अन्दर ही दबे रह गये, पब्लिश नही हो पाये। सो इस हफ्ते जब सोमवार को तेलगु नववर्ष (उगाधी) होने की वजह से शनि-रवि-सोम, ३ तीन की लगातार छुट्टी हुई और काम का बोझ भी कम था तो फिर सोंचा कि इस बार तो कहीं जाकर आया ही जाये। पहला दिन पूरा होते होते लग रहा था कि ये छुट्टियां भी अन्य छुट्टियों की तरह ना बीत जायें। लेकिन शाम होते होते मित्र रामा की सक्रियता के चलते लगा कि इस बार तो कहीं जाने का कार्यक्रम बन ही जायेगा।

२ दिन अभी भी बाकी थे। रामा ने, जो बेचारा छुट्टी के दिन भी आफिस में काम निपटा रहा था,शाम को फोन किया कि हम कल श्री सैलम चलेंगे,सुबह साढे पांच की डीलक्स बस के टिकट करवा लिये हैं। हम ने कहा अति उत्तम। लेकिन २-४ सेंट्स ..बोले तो अपनी सलाहे भी दे डालीं। यार गाडी किराये पर लेकर चलते हैं…मोटरसाइकिल से भी चल सकते हैं…रास्ता बडा अच्छा है …गाडी होगी तो मजा आयेगा आदि आदि । रामा ने अपना रामबाण फेंका…तो फिर गाडी का इंतजाम तुम करो। मैने कहा..नही यार बस ही ठीक है..सस्ती,सुन्दर,टिकाऊ और आरामदायक 🙂 ।

सुबह साढे पाँच बजे कोई बस/ट्रेन पकडे बरस बीत गये..पर इस दिन सुबह ४ बजे उठे…सवा पांच बजे बस अड्डे भी पहुँच गये और शुरू हुआ साढे पाँच की डीलक्स बस का इंतजार। ५.४०/ ५.४५ तक जब बस नही आई तो चिन्ता होने लगी कि हम कहीं गलत जगह,गलत बस का इंतजार तो नही कर रहे। पूंछताछ करने पर पता चला कि जिस बस का हम इंतजार कर रहे थे वो रात को आते समय कहीं फंस गई थी और आने वाली नही थी। उसकी सवारियों को दूसरी बस में बिठाया जा रहा था हालांकि इस आशय की कोई घोषणा करने की कोई जहमत नही उठाई जा रही थी। अब जिस बस में बिठाया जा रहा था वो किसी भी एंगल से डीलक्स नही थी। इसमें बैठकर पता चला कि यह बस तो अपने समय पर ही चलेगी। किसी तरह ६.३० बजे बस हिली और अपना सफर शुरू हुआ। एक घंटा लेट हम चलने के पहले ही हो चुके थे और बस को देखते हुए लग रहा था कि ६ घंटे से पहले तो यह किसी हालत में नही पहुँचायेगी। शुरुआत इतनी प्यारी हुई थी। आगे आगे देखना था होना था क्या।

इसके अलावा, चूंकि हडबडी में सारा कार्यक्रम बना था सो ना तो यह पता था कि वहां देखने के लिये क्या क्या है,रुकने की क्या व्यवस्था है, रास्ते में अगर देखने लायक कोई जगह है तो उसके लिये कहां उतरना है …बोले तो कोई जानकारी नही थी। हालांकि इस तरह कही जाने का अपना अलग मजा है। आप झोला उठाइये और जिधर मन आये चल दीजिये। यह सोंचकर, कि जो होगा वो देखा जायेगा।

अब थोडा श्रीसैलम के बारे में। हिन्दुस्तान में बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमे से एक श्रीसैलम में है। शिवजी के स्वरूप को यहाँ श्री मल्लिकार्जुन स्वामी कहा जाता है।  साथ ही यहां शक्तिपीठ भी है जहाँ देवी भ्रमरंभा (Bhramaramba) की उपासना की जाती है। इस लिहाज से यह भारत का एक मात्र तीर्थ स्थल है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ एक ही स्थान पर है। काफी दूर दूर  से श्रृद्धालू यहां आते हैं जिनमें आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और माहाराष्ट्र से आने वाले श्रृद्धालू प्रमुख हैं। यह स्थान करनूल जिले के नल्लामल्ला जंगलों के मध्य श्रीसैलम पहाडी पर बसा है। पास में कृष्णा नदी है जो जंगलों और पहाडों के बीच से होकर निकलती है और जिस पर श्रीसैलम के पास में ही एक बांध बनाया गया है। श्री सैलम हैदराबाद से सडक मार्ग से करीब २३२ किलोमीटर दूर है। करीब १२५ किलोमीटर का  रास्ता  साधारण है लेकिन एक बार आप पहाडी और जंगल का रास्ता शुरू होने के बाद रास्ता देखते ही बनता है। करीब ८०-१०० किलोमीटर का यह रास्ता अत्यंत सुन्दर है। बीच में सडक से थोडा अन्दर जाकर देखने के लिये कुछ जगहे हैं, मसल एक झरना और जंगल के बीच ट्रेकिंग का रास्ता लेकिन खुद का वाहन ना होने की वजह से इन सब जगहों पर रुकना और देखना संभव न हो सका। जाने का समय भी शायद बरसात और उसकी बाद का बेहतर होगा जब जंगल पूरे शबाब पर होता होगा। करीब ५० किलोमीटर पहले से बांध क्षेत्र शुरू हो जाता है और नजारों की नजाकत बढती जाती है। पहाडी के बीच से नदी निकल रही है और यहीं बांध बनाया हुआ है। बस पहाडी के एक तरफ से ढलान से नीचे उतरना शुरू होती है और जगह जगह पर मोड आते हैं जहां बांध आपसे आंख मिचौली करता रहता है। बस में होने के कारण सिर्फ खिडकी में से ही नजारे देख सके और फोटो लिये गये..अन्यथा थोडा समय बिताने के लिये अच्छी जगह है। पहाडी के एक तरफसे उतर कर एक छोटे (बांध की तुलना में छोटे) पुल को पार करके फिर पूरी घांटी चढनी होती है। इसके बाद श्रीसैलम ज्यादा दूर नही रह जाता।

खैर,हम किसी तरह १२:३० बजे के आसपास श्री सैलम पहुँचे। यहां पहुँच कर भीड का जो नजारा देखा, भगवान के दर्शन करने के लिये जो मशक्कत की और आसपास क्या क्या देखा…वो अगली पोस्ट में। आप तब तक रस्ते के फोटू सस्ते में देखिये।

कृष्णा नदी- पहाडी के ऊपर से। तस्वीर में लम्बी घुमावदार सडक देख सकते हैं।

नदी पर करने के बाद, पहाडी के ऊपर से कृष्णा नदी। सामने की तरफ लम्बी घुमावदार सडक देख सकते हैं।

बांध- कृष्णा पर बने पुल के ऊपर से

कृष्णा पर बने पुल से बांध का दृश्य। नदी के पेटे में लोग तो दिख ही रहे हैं बडी संख्या में चौपहिया वाहन भी खडे थे (फोटो में नही दिख रहे।)


चलते चलते- *श्रीसैलम को अंग्रेजी में Sri Sailam लिखा जाता है। हिन्दी में नाम लिखा हुआ मैने केवल एक जगह देखा जहां श्रीशैलम लिखा हुआ था। लेकिन उच्चरण जो मैने आजतक लोगों से सुने हैं वो या तो स्रीसैलम सुना है या श्रीसैलम। मैं निश्चय नही कर पाया कि सही क्या है। अपन फिलहाल श्रीसैलम से काम चला रहे हैं।

मेला घूमेंगे?

झूले में बैठने का मन है? आइये आपको हैदराबाद में “राजस्थानी हवाई झुल्ला” में सैर करवाते हैं।

Rajasthani Hawai Jhulla

गेट पर लिखा हुआ है “शराब पिके झुले पर बैठना मना है।” यार शराब पिके  झूले पे कोई क्यों पैसा बरबाद करेगा… पीकर तो आदमी का दिल, दिमाग ,जिस्म सभी कुछ झूमता और झूलता ही रहता है 🙂 । ऐसा लिखना चाहिये, “या तो झूले पर बैठो, नही तो शराब पियो” 😀 |

jhoola

और ये झूले के एकदम ऊपर से मेले का दृश्य (दांयी ओर मौत का कुआ दिख रहा है, बांयी और जो नही दिख रहा वहां अन्य प्रकार के झूले, गाडियां आदि थीं)

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बचपन में झूले में बैठने में बहुत डर लगता था। अब नही लगता। सच्ची 🙂 । इस समय हमारे गांव में भी मेला लगता है। महाशिवरात्रि से शुरू होता है, अभी चल ही रहा होगा। ये लोहे के बडे झूले तो बाद में देखे, शुरुआती यादें लकडी के झूलों की हैं जिन्हे आदमीं खींचा करते थे। चकडोलर कहते हैं हमारे यहां उन्हे।चर्र चर्र आवाज करते थे चलते समय। टाकिज भी आता था है मेले में पर मैने आज तक नही देखा। सच्ची।

chanaa masala

और ये है “नींबू, कैरी, धनिया, पुदीना, टमाटर एवं अन्य मसालों” से भरपूर, चना मसाला। खाया नही, बस फोटो लिया। गांव में मेले की फेमस चीज गोंद के पापड हुआ करती थी, अभी भी चांस लग जाये तो नसीब हो जाते हैं। कल गये थे मेले में घूमने। यहां नेकलेस रोड पर। आप भी फोटो देख कर खुश हो लीजिये। 🙂

मौसम का मिजाज…

टी वी पर समाचार देख/सुन रहे थे कल। समाचार वाचक सुन्दरी ने मौसम का हाल बताते हुए , मुस्कुराते हुए अंग्रेजी में जो कहा उसका आशय कुछ ऐसा था “दिल्ली और उत्तरप्रदेश के लोग राहत की सांस ले सकते हैं क्योंकि यहां बारिश की संभावनाएं हैं” (चैनल का नाम ध्यान नही) । पता नही उनका सामान्य ज्ञान कैसा था…या फिर उनके लिये लोगों से मतलब सिर्फ शहरों में रहने वाले, नौकरीपेशा लोग होते  होंगे (गांव में कौन अंग्रेजी चैनल देखता है)…लेकिन  साल के इस समय हिन्दुस्तान भर के खेतों की फसल कट कर खलिहानों में रखी होती है और हल्की सी बरसात उसकी गुणवत्ता बिगाड सकती है। ज्यादा हो जाये तो भगवान ही मालिक है। तो बारिश इस समय राहत की सांस नही होती…गले की फांस हो जाती है। फसल के सही पैसे आये तो ही पुराने कर्जे चुकेंगे, बच्चों की शादियां निपटेंगीं और अगली फसल की तैयारी हो पायेगी। बहुत उम्मीदें बंधी होती हैं। शायद टी वी सुन्दरी को इस बात की जानकारी हो।

मौसम कुछ ऐसा बिगड रहा है कि मेरे गृह जिले झालावाड और उसके आसपास भी मौसम खराब हो रहा है और यहां १५०० किलेमीटर दूर हैदराबाद में भी पिछला सप्ताह गीला बीता..आज सुबह भी मौसम बेइमान हो रहा था। सिर्फ किसान ही नही..आइसक्रीम बेचने वाला मेरा  FlatMate भी  मौसम के मिजाज से दुखी है…अप्रेल का महीना आ गया और बेचारे की बिक्री अभी तक परवान नही चढी।