अनामदास अपने चिट्ठे पर योरोप की आसन्न सर्दियों की कंपकंपाहट का अहसास करवा रहे हैं…नीरस, बोझिल, उदास सी सर्दियां। काली, धूसर, डरावनी सर्दियां। बैरंग, ब्लैक एण्ड व्हाइट सर्दियां। सर्दियों की बात चली तो महसूस हुआ कि सुबह-सुबह आजकल यहां भी हल्की सी ठंड महसूस होने लगी है। उन्होने योरोप की सर्दियों से मिलवाया तो हमें भी अपने यहां आती सर्दियों की आहट सुनाई दी। लेकिन कंपकंपाहट नही हुई…मन में गुदगुदी सी हो उठी।
सर्दियां….। छत पर या आंगन में धूप में चद्दर बिछा कर कम्बल ओढे सोने का मौसम । उसके बाद धूप में बैठ कर देर तक सरसों के तेल की मालिश और फिर कुनकुने पानी से स्नान। (हफ्ते में चार बार…अच्छा चलो २ बार तो पक्का)। हरे मटर, गाजर, मूली का मौसम। इनसे मन ना भरे तो सिकी हुई गेहूँ की बालियां और चने के बूटे हाजिर हैं। और मीठे के लिये पिण्डखजूर तो है ही। अगर सोना-खाना नही है, उछल कूद करनी है तो देर तक छत पर पतंग उडाने का, अथवा मैदान में गिल्ली-डंडा खेलने का मौसम। थक-हार कर घर आयें तो देर रात तक रजाई में गुडीमुडी होकर बैठे रहने का मौसम।
लड्डुओं का मौसम। गोंद के लड्डू, मेथी के लड्डू, उडद के कड्डू, कसार के लड्डू। गाजर का हलवा, शकरकंद का हलवा। गजक का मौसम। गुड की, शकर की गजक। कुटी हुई तिल्ली की चक्की, साबुत तिल्ली की चक्की, तिल पपडी। या फिर गरमागरम सिकी हुई मूंगफली और गुड?
हरी सब्जियों का मौसम। मेथी का साग, पालक, बथुआ का साग। सरसों का साग। साथ में ढेर सारा घी लगा कर ज्वार, मकई की रोटी। अथवा गरम, मीठे दूध में चूर कर भी। अगर तला भुना खाने का मन है तो मेथी, मूली, पालक, गोभी के परांठों का मौसम। साथ में धनिया/पुदीने की चटनी, कच्चे टमाटर की चटनी नींबू/केरी का अचार। दिन में दो-तीन दफा गर्मागरम चाय, गर्मागरम चाय और गर्मागरम चाय। और उसमें अदरक, लोंग, कालीमिर्च डली हो तो बात ही क्या?
शाम को सिगडी/तगारी में कोयले जलाकर हाथ सेकने का मौसम। सुबह नहाने का पानी गरम करने के लिये दालान में रखे गये चूल्हे के साथ अठखेलियां..कभी उसमें अखबार, तो कभी घास के तिनके तो कभी मूंगफली के छिलके डाल देना। फिर भी ना सुलगे तो फूंकनी से जोर जोर से फूंक देना…(और फूंक देते देते अगर सांस उलटी खिंच गई तो गये काम से 🙂 खांसते रहो खुल्ल-खुल्ल)। औरकुछ नही तो ऐसे ही बैठे बठे हाथ तापना।
‘उधर’ ये “..सारी ख़ुशियों और उल्लास के स्थगन का मौसम…” है, तो इधर चार-छः दिन बाद देवोत्थान एकादशी आ रही है। कइयों की आस बंधी हुई होगी…चलो, इस बरस तो ‘चेत’ ही जायेगी। बोले तो…इसी के साथ शुरू हो जायेगा, शादियों का मौसम। बैंड-बाजों…पूंपाडियों का मौसम।
बक्से से पुराने स्वेटर, जर्सी, कोट , मफलर, टोपा, शाल, कम्बल, रजाई निकाल कर धूप देने का मौसम। हालांकि, रेडीमेड के इस जमाने में स्वेटर-जर्सी की बुनाई का चलन बहुत कम हो गया है, अन्यथा ऊन के गोलों का मौसम भी यही है। या फिर पुराने पडे २-३ स्वेटरों को उधेड कर एक नया स्वेटर बना दिया जाये?
और हाँ, जिनके जोडों/घुटनों में दर्द रहता है उनके लिये हायतौबा का मौसम। जुकाम से बहती नाक। फटे(रूखे)हाथ, पैर, गाल, होठ..फटी हुई बिवाइया..रात को आधा घंटा तेल में वेसलीन मिला कर मालिश करने का मौसम।
चलते चलते:
वैसे, ऐसा नही है कि हम यहां ये सारे सुख भोग रहे हैं। सच तो ये है कि ये सब सुख आप अपने घर (फ्लेट नही), अपने गांव, अपने कस्बे में ही महसूस कर सकते हैं। अब घर से बाहर निकल गये(या निकाले गये), तो राजस्थान से हैदराबाद जायें..या भारत से योरोप के किसी देश, हैं तो परदेसी ही। और अब घर जाना भी कितना कम हो पाता है..गये तो तो हद से हद ४-५ दिन। क्या खायेंगे..क्या करेंगे..कितना जियेंगे इन ४-५ दिनों में?
तो फिर आइये…सर्दी का स्वागत करते हैं। 🙂
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