‘चक दे इंडिया’ देख कर मैने लिखा था कि ..”अंडरडाग की जीत की कहानी अक्सर हम सब को पसंद आती है…जाने अन्जाने हम अपने आप को अंडरडाग से जुडा महसूस करते है..”। जाने क्यों..’आजा-नच-ले’ देखते देखते मुझे चक दे इंडिया याद आती रही। शायद इसलिये भी, कि जिन जयदीप साहनी ने चक दे इंडिया लिखी थी, उन्ही नें आजा नचले भी लिखी है।
फिल्म की कहानी है, दिया(माधुरी दीक्षित) की जो फिलहाल न्यूयार्क में कोरियोग्राफर हैं। करीब दस साल पहले दिया को अपना शहर शामली छोडना पडा था, अपने प्यार के लिये। वो वापस लौटती है, अपने गुरू की मौत पर। उसे अजंता थियेटर बचाना है जहाँ उसने नृत्य सीखा है, और जिसे गिरा कर अब एक शापिंग माल बनने वाला है।
चक दे.. से तुलना करूं तो वहाँ शाहरुख-कोच, यहाँ माधुरी-नृत्य निर्देशिका, शाहरुख के खिलाफ सारा देश, माधुरी के खिलाफ सारा शहर, वहाँ हाकी तो यहाँ रंगमंच, वहाँ १६ खिलाडियों की एक टीम, यहाँ ८-१० कलाकारों की एक टीम, वहाँ क्रिकेट बनाम हाकी है, यहाँ रंगमंच बनाम बाजार…और अंततः अंडरडाग (अंडरडाग को हिन्दी में क्या कहेंगे?) की जीत ।
लेकिन दोनों की तुलना करना शायद आजा नचले के साथ अन्याय होगा। शाहरुख आज के समय के सबसे बडे सितारे हैं और पारंपरिक रूप से बालीवुड में ४० के आसपास के अभिनेताओं का वर्चस्व रहा है। उधर माधुरी का शिखर समय आज से लगभग १३-१४ वर्ष पहले था, ६ साल बाद यह उनकी पहली फिल्म है और इस बीच दरिया में कई प्रिंट्स बह चुके। यह शायद पहली बार होगा जब मुख्य धारा की कोई फिल्म एक ४० पार के अभिनेत्री पूरी तरह अपने कंधों पर उठाये हुए है, और क्या खूब उठाये हुए है। और इस साहस के लिये निर्माता-निर्देशक और उनकी टीम बधाई की पात्र हैं।
माधुरी के अलावा फिल्म आज के दौर के बेहतरीन कलाकारों से भरी पडी है। विनय पाठक, इरफान, कोंकना सेन शर्मा, रनबीर श्रोय, कुनाल कपूर, अखिलेन्द्र मिश्रा, रघुवीर यादव..इतने सारे कलाकार एक फिल्म में हों तो वैसे ही फिल्म का देखना बनता है। हालांकि इसका एक नुकसान ये भी है कि सबको बहुत थोडा-थोडा स्क्रीन स्पेस मिला है और आप तमन्ना करते हैं कि काश फलां के हिस्से में कुछ डायलाग्स और होते। हालांकि करना नही चहता, पर यहां भी चक से इंडिया से तुलना किये बगैर नही रह सकता…चक दे इंडिया की लडकियां फिल्म की जान थीं..पर वो सब अपेक्षाकृत नये चेहरे थे, यहां चूंकि सामना देखे दिखाये चेहरों से होता है, सो आप थोडा और की फरमाइश किये बिना नही रह सकते।
फिल्म की शुरुआत में माधुरी थोडी थकी हुई नजर आती हैं..खासकर अंग्रेजी गाने में..लेकिन एक बार जब टाइटल ट्रेक पर उनके ठ्मके लगने शुरू होते हैं तो चेहरे पर मुस्कान आये बिना नही रहती। माधुरी दीक्षित फिल्म की जान हैं…हालांकि उनकी मुस्कान देख कर मुझे हम-आपके-हैं-कौन याद नही आई, लेकिन उनके ठुमके देख कर “मेरा-पिया-घर-आया” जरूर याद आया।
फिल्म का क्लाइमेक्स हाल के समय में आई फिल्मों में सबसे बढिया है। आमतौर पर हिन्दी फिल्मों में इन्टरवल के बाद कई बार फिल्म बहकने लगती है पर यहाँ क्लाइमेक्स लैला मजनूं पर आधारित एक नृत्य नाटिका है और ये २०-२५ मिनट फिल्म के सबसे बेहतरीन पल हैं। शानदार बोल, बढिया संगीत, जगमग सेट और दमदार अभिनय…यह नाटिका खत्म होते होते बिल्कुल आप सम्मोहित से हो जाते हैं और एक अजीब से सन्नाटे से भर जाते हैं। (हालांकि फिल्म के गानों के साथ यह नृत्य नाटिका पूरी तरह नही दी गई है।)
टाइटल ट्रेक और अंतिम नृत्य नाटिका के सेट, नृत्य संयोजन और प्रकाश संयोजन बेहतरीन हैं। हालांकि ये बात कुछ हजम नही होती कि दिन में इतना खंडहर सा दिखने वाला मंच, रात में कैसा जगमगा उठता है। लेकिन इतनी छूट दी जा सकती है।
जब ६० पार के अमिताभ बच्चन को केन्द्रिय भूमिकाओं में रख कर फिल्में लिखे जाने लगीं थी तो यह बालिवुड में एक नये दौर की शुरुआत थी। क्या माधुरी की वापसी वाली यह फिल्म एक नये दौर की शुरुआत करेगी…देखते हैं।(जयप्रकाश चौकसे, दैनिक भास्कर के अपने नियमित कालम में माधुरी की वापसी वाली बात पर एतराज जताते हैं और कहते हैं कि माधुरी गईं ही कब थी? आप क्या कहते हैं?)
चलते चलते-
फिल्म देख कर रात को घर लौटे तो सब खबरिया चैनल फिल्म को उत्तर प्रदेश में बैन किये जाने की खबरें दिखा रहे थे। बहुर देर तो यह समझ नही आय कि वो लाइन कौन सी थी जिस पर बवाल मचाया रहा है। सच मानिये, अगर यह विवाद ना खडा होता तो शायद ध्यान भी ना जाता इस लाइन पर। वैसे इस तरह फिल्म को बैन करना क्या “अभिव्यक्ति-की-स्वतंत्रता-का-गला-घोंटने” के दायरे में नही आता? भई किसी विवादास्पद पुस्तक अथवा चित्र पर इस तरह का बैन तो यही कहलाता।