तेलुगु नव वर्ष (युगादि) पर दोस्तों के साथ श्रीसैलम जाने का मौका मिला जहाँ भारत के बारह ज्योतिर्लिंग में से एक और शक्तिपीठ हैं। सुबह सवेरे की बस पकड कर छः घंटे के सफर के उपरांत श्री सैलम पहुँचे, ये आपने पिछली पोस्ट में पढा। अब आगे….
बस से उतर कर जो आगे का नजारा किया तो भीड देख कर भाई लोग भौंचक रह गये। कन्धे से कन्धा सटा कर चलते लोग। मुझे पूर्णिमा के आसपास गिरिराज जी(गोवर्धन, मथुरा) की परिक्रमा याद आ गई…वैसी ही भीड, रैले का रैला चलता हुआ..२१ किलोमीटर (सात कोस) तक। यहां फर्क ये था कि बस एक किलोमीटर आगे मंदिर तक जाना था…पर दिक्कत ये कि हमें कुछ पता नही था। मित्र रामा एक बार आया था पर इस भीड को देख कर उसका सारा दिशा ज्ञान धरा रह गया। भीड के रेले के साथ साथ चलते हुए मंदिर के पास तक पहुंछे तो बताया गया कि थोडा गलत आ गये हैं…कुछ पीछे से एक मोड मुडना था और दर्शन वाली लाइन उधर ही थी। घूमते फिरते उधर पहुँचे। अभी तक सडक पर चलती भीड देखी थी…अब दर्शन की लाइन देख कर सांस अटक गई। फ्री दर्शन की लाइन का तो कोई पार नही दिख रहा था और ५० रुपये वाले दर्शन में जो मारा मारी हो रही थे वो देखी नही गई। हार कर एक जगह लाइन में लगे जहां सौ रुपये वाले टिकट मिल रहे बताये गये। सबसे बडी मुश्किल यह कि सूचना देने वाला कोई नही। लोग एक दूसरे से पूंछते और एक दूसरे को जवाब भी दे देते। थोडी देर बाद पता चला कि ये १०० रुपये वाली खिडकी तो बंद पडी है..और टिकट नही मिल रहे हैं। फिर भी खडे रहे। किसी तरह खिडकी तक पहुँचे तो बताया गया कि टिकट अब शाम को ६ बजे मिलेंगे।
३५० वाला…? शाम को।
६०० वाला….? शाम को।
१००० वाला…? ह्म्म्म आपको चाहिये?..मिल सकता है..। नही..शाम को!
मन किया कि आसपास घूम कर दर्शन किये बगैर की लौट जायें..पर नही..आये हैं तो इनसे मिल कर ही जायेंगे। हमें हैदराबाद के अपने पिच्चर हाल याद आये..जहां से हम कभी खाली हाथ नही लौटे चाहे ४० की टिकट ८० में खरीदी हो। अफसोस यहां कोई ब्लेक नही हो रही थी।
(भीड का पहला नजारा)
मुझे समझ नही आ रहा कि क्या मन्दिर में पैसे देकर दर्शन वाली व्यवस्था होनी चाहिये? या सब एक समान हों और दर्शन की कोई बेहतर व्यवस्था हो। माना कि गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नही जा सकते लेकिन कम से कम इंतजाम तो ठीक किये जा सकते हैं? खडे रहने की व्यवस्था, छाया, सूचना एवं जानकारी आदि आधारभूत व्यवथाएं तो प्रशासन उपलब्ध करवा ही सकता है..या फिर सोंचा हुआ है कि राम जी की मरजी राम जी का खेत। भगवान का घर है..यहां हम क्या कर सकते हैं। खैर ये हमें बाद में पता चला कि युगादि का त्यौहार होने की वजह से उन २-३ दिनों में आम दिनों से २-३ गुनी भीड थी अन्यथा समान्यतः इतनी अव्यव्स्था नही होती। फिर भी चूंकि ये बात पहले से पता होती है सो बेहतर इनतजाम तो किये ही जा सकते हैं।
खैर..सोंचा गया कि भगवान से तो शाम को ही मिलेंगे..आसपास घूम लियी जाये। पहले मंदिर का एक चक्कर काटा, इस आस में कि बेकडोर एंट्री का कोई इंतजाम हो। असफल। मंदिर के पीछे प्रसाद वितरण काउंटर थे जहाँ से पाँच-पाँच रुपये के लड्डू खरीदे और स्वयं ने भोग लगाया। बहुत स्वादिष्ट। फिर होटल में खाना खाया और सोंचा कि रात को लौटने के लिये आखिरी बस में टिकट करवा लेते हैं।बस अड्डे पहुँचे तो वहां एक सूचना चिपकी हुई थी…फलां-फलां-फलां दिन बसों के अग्रिम आरक्षण बंद रहेंगे। अव्यवस्था का एक और नमूना। जिस समय सबसे ज्यादा भीड रहे, सबसे ज्यादा जरूरत हो, तब सेवाएं बन्द कर दो। पब्लिक अपने आप निपटेगी।
खैर, अब आसपास घूमने निकलना था। घूमने के लिये २१० रुपये में एक आटो किया गया। तय हुआ कि वो हमें साक्षी गणपति, शिखरम एवं अन्य २-३ मंदिर दिखायेगा। हम इस मुगालते में थे कि आसपास ही कोई झरना भी है,जो कि इस २१० वाले पैकेज में शामिल है। तेलुगु में बात हुई थी सो रामा से कहा कि एक बार कनफर्म कर लो। उसने भी हाँ-हूँ करके टाल दिया। खैर, आटो में बैठकर चले। साक्षी गणपति और एक अन्य मंदिर तो २-३ किलोमीटर की दूरी पर ही निकले। हमें लगा कि बेटा आटो वाले ने ठग लिया। उसके बाद गये एक अन्य स्थल पर, जिसका नाम नही पता चला। वहां काफी नीचे सीढियां जाती थीं और नीचे पहाड में से पानी निकल रहा था। लोकेशन एक छोटे मोटे झरने जैसी ही थी,लेकिन सूखा हुआ। शायद बरसात में आते तो नजारा कुछ और होता। यहाँ खत्म करके पूंछा अब कहां..तो बोले शिखरम। यह इस पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी बताई जाती है। यहाँ सबसे ऊपर नंदी की मूर्ति स्थित है। और वहां से श्रीसैलम कस्बा और मुख्य मंदिर भी नजर आता है। नंदी के दोनों सींगों के बीच में से मंदिर को देखने की परंपरा है, शुभ माना जाता है।लोग देख रहे थे और हम लोगों को देख रहे थे। यहाँ से नीचे उतरे तो पता चला कि यह आटो डील का आखिरी पडाव था और अब वापस हमें श्रीसैलम कस्बा जाना था। झरने के बारे में पूंछा तो बताया गया कि वो तो यहाँ से ६०-७० किलोमीटर दूर है, वो इस डील का हिस्सा नही था!
(शिखरम से शहर और कृष्णा नदी)
(नंदी के इन दो सींगों के बीच में से मंदिर देखने की परंपरा है)
वापस पहुँचे करीब पाँच बजे। अभी छः बजने में एक घंटा था पर फिर भी टिकट मिलने के संभावित स्थल पर जाकर भीड में खडे हो लिये। इस बार भी किसी को पता नही था कि टिकट यहीं मिलेंगे अथवा नही। मिलेंगे तो कितने रुपये वाले मिलेंगे। पर हम डटे रहे। अभी सडक पर ही खडे थे और टिकट खिडकी तक पहुँचने वाली रेलिंग का दरवाजा नही खुला था। पौने छः के करीब वो दरवाजा खुला और जो भगदड मची कि अलवर में पिच्चर हाल के बार हुई धक्का मुक्की और बेल्टें याद आ गईं। कुदते फांदते लाइन में लगे और टिकट खिडकी खुलने का इंतजार करने लगे। आखिरकार खिडकी खुली और लाइन सरकना शुरू हुई। टिकट खिडकी के करीब पहुँचकर पता चला कि वहां मात्र साढे छः सौ रुपये वाले टिकट मिल रहे थे ये “अभिषेकम” के टिकट थे। अन्य किसी टिकट के बारे में जानकारी नही थी और दर्शन तो आज ही करने थे तो टिकट खरीदे गये..जिसमें २ नारियल, एक गुलाबजल की शीशी और एक गमछा साथ में मिला। मंदिर के अंदर पहुँच कर ऐसा लगा कि आधा लडाई फतह हो गई है। पर यहां अन्दर जाकर कहां जाना है यह कोई जानकारी नही थी। हम अलग तरफ से घुसे थे, दर्शन की लाइन (फ्री और पचास रुपये वाले) अलग जा रही थी। एक जगह कुछ लोगों का झुण्ड दिखा जो हमारा वाला ही सामान लिये हुए थे ..उनसे पूंछा तो पता चला कि हमें भी यहीं बैठना था। यह जगह गर्भगृह से थोडा हट कर थी और यहां हमें भगवान का अभिषेक करना था। आखिरकार एक सज्जन आये और उन्होने लाइन लगवाई..सात सात के ग्रुप में अभिषेक करना था भगवान का। उसके पहले ऊपरी वस्त्र (शर्ट और बनियान ) उतारने का आदेश मिला। सो वो उतार कर साफी गले में डाल ली गई। हमें ये चिन्ता थी कि हम मुख्य मंदिर में दर्शन कर पायेंगे या नही सो अभिषेक करवाने वाले सज्जन से ही पूंछा कि भाईसाहब, मुख्य मंदिर के दर्शन इस पैकेज में शामिल हैं या नहीं। उन्होने हाँ कहा तो तसल्ली हुई। यहां अपना नम्बर आया तो गुलाबजल से भगवान का अभिषेक किया गया, एक नारियल फोडा गया और चल दिये। दर्शन के लिये किधर से जाना है अभी भी यह पता नही थी। एक पुलिसवाले से पूंछा तो उन्होने शार्टकट बताया और हमने एक दरवाजा पार करके सीधे अपने आप को मुख्य मंदिर के अन्दर पाया। चूंकि मंदिर का अंदरूनी भाग बहुत छोटा था और पब्लिक बहुत ज्यादा, सो गर्मी औए उमस भयंकर थी। कुछ AC लगे हुए दिखे पर काम नही कर रहे थे। हमने सोंचा कि हमें तो यहां से चन्द पल में चल देना है, बेचारे भगवान जी का क्या हाल होता था, जो हमेशा यहीं रहते हैं। एकदम मुख्य गृह तो और भी बहुत छोटा था और अंधेरा भी। पंडित लोग खडे थे जो किसी को २ सेकेंड से ज्याद मत्था नही टेकने देते । आप सिर झुकाइये..पीछे से वो आपको झुकायेंगे और उठा देंगे। हमने सिर टिकाया और जो पीछे से धक्का लगा तो भट्ट से सिर टकराया शिवलिंग से। हमने शिवजी से माफी मांगी और निकल लिये। इसके बाद ज्यादा समय नही लगा, शक्तिपीठ के दर्शन किये और थोडी ही देर में हम मंदिर के बाहर थे। बाहर अभी भी भीड जोरदार थी सो हमने निश्चय किया कि अगर भीड में अलग अलग हो गये तो बस स्टेण्ड के पास मिलेंगे। हमें चिन्ता यह थी कि भीड की वजह से लौटती बस में जगह नही मिलेगी। पर ऐसा कुछ नही हुआ। जिस बस में लौटे वो लगभग खाली आई और हम सीट पर लम्बलेट होकर आये। शायद हैदराबाद में हमारे सिवा सबको पता था कि पर श्रीसैलम में कर्नाटक और महाराष्ट्र से आये हुए लोगों की भीड होती है सो अभी ना ही जाया जाये तो बेहतर।
(शाम को दर्शन के समय भीड)
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पोस्ट कुछ ज्यादा लम्बी हो गई। इस पोस्ट को कुल तीन भागों में बांटने का विचार था पर महसूस कर रहा हूं कि पार्ट में पोस्ट ’कमिट’ तो कर देता हूं..पर एक भाग लिखने के बाद दूसरा भाग लिखना लम्बा खिंच जाता है (या बिल्कुल ही टल जाता है) जो कि गलत है। कम से कम दो पोस्ट्स के दूसरे भाग इस चिट्ठे पर आने की राह देख रहे हैं पर नही आ पा रहे। प्रयास रहेगा कि सीरियल पोस्ट के चक्कर में ना ही पडा जाये।
पोस्ट लम्बी भले ही हो,आपकी यात्रा काफ़ी रोचक लगी.श्री सैलम की जय.हमें कब दर्शन करा रहे हैं आप?
नीचे तक सीढियाँ जाती है, पहाड़ से पानी निकल रहा है – इस जगह का नाम है पंचधारा। बाहर बाईं ओर बोर्ड पर नाम लिखा है शायद आपने नहीं देखा।
यहाँ पहाड़ से निकलता जो पानी आपने देखा वह वास्तव में थोड़ी-थोड़ी दूर पर पाँच धाराएँ है। माना जाता है कि यहाँ पाँच दिशाओं से पानी आता है जिनमें अगर स्नान न भी कर पाए तो कम से कम हाथ-मुहँ धो लेना शुभ माना जाता है।
यहीं पर किनारे छोटा सा मन्दिर जैसा है जिसमें आदि शंकराचार्य की मूर्ति है। इस स्थान को भागीरथ की तपस्या से जोड़ा जाता है और शंकराचार्य का यही स्थान माना जाता है।
नीचे का झरना तो सूख ही गया है। अगर आपने आस-पास बोर्डो पर नज़र डाली होती तो पूरी जानकारी आपको मिल जाती।
good one nitin. I can so very well imagine you and Rama fighting your way through that main temple. Very interesting narration. I loved it more because i knew where its coming from! Besides, one correction on fact sheet – we have returned without watching a film in Hyderabad bc black mei bhi teckets nahi mil rahe the and you had to settle for joy ride!
फोटो में कृष्णा के दर्शन किये अच्छा लगा। कुछ कहते हैं कि कृष्णा-कावेरी की अंतर्धारा देश के कई भागोँ में बहती है। पता नहीं, कितना सच है।
Bandhu,
650 Rs me bhagwan ke darshan, atoot bhakti hai aapki, bhagwan ke darshan ka bhi daam laga diya bhakto ne,this instant darshan scheme is one of the reason I am yet to go to siddhi vinayak after two yrs of stay in mumbai…, even in temples the rich have a better access.
My tirupati experience is the worst,the whole place reeks of corruption, a food for thought for:
1)politicos- reservation to the backwards in temple darshan
2)BCCI- cheerleaders in temples
3)NGO- PRA exercise in temples
4)Banks-can launch privilege darshan cards
रोचक रहा आपका यात्रा वृतांत.
भाई मान गए आपकी भक्ति को। इतनी भीड़ भाड़ में धक्का मुक्की हमारे जैसों से तो संभव नहीं थी।
श्रीशैलम और कृष्णा नदी के दर्शन वृताँत के लिये आभार
– लावण्या
आपने पहले ही कह दिया है कि पोस्ट लंबी हो गई है। वजह भी आपने बता दी है। मेरा एक सुझाव है ऐसे में पूरी पोस्ट लिखने के बाद उसे तीन हिस्सों या जितना चाहें उसमें तोड़ देते और हर रोज एक नियत समय पर पोस्ट कर देते। ड्राफ्ट की सुविधा तो है ही। वैसे बढ़िया वृतांत सुनाया।
आप सबका टिप्पणी के लिये धन्यवाद।
इला जी,- आप हैदराबाद पधारिये..श्रीसैलम का टिकट हम कटवाते हैं 🙂
अन्नपूर्णा जी- जानकारी के लिये शुक्रिया। यात्रा के फोटो दोबारा देखे तो एक फोटो में वह बोर्ड भी दिख गया। सीख – १) घूमते समय आँखें खुली रखूं…२) ब्लाग पर लिखते समय और जानकारी जुटाऊं
पौरवी-याद दिलाने का शुक्रिया। मल्टीप्लेक्स को हम अपने ’पिच्चर हाल’ में नही गिनते। वहां जाते भी तभी हैं जब कोई और प्रायोजित करे…
ज्ञानदत्त जी-सच्चाई तो हमें भी पता नही. हाँ सरस्वती की अंतरधाराओं के बारे में सुना है।
अलोक- बडा मुद्दा छेडा है भाई…एक अलग पोस्ट लिखनी पडेगी।
समीर जी, मनीष, लावन्या जी- टिप्पणी के लिये धन्यवाद
हर्षवर्धन जी- सुझाव आपका वाजिब है। पर Unpublished Draft पडा हो तो ऐसा लगता है कि फ्रिज में अनखाई आइस्क्रीम पडी हो या ताक पर बिना खाये लड्डू। आदत नही है छोडने की।
thanks..
thanks..
lo ji ek aur sukriyia is post ke leay