पिछले काफी समय से मेरा हिन्दी पुस्तकें पढना काफी कम होता जा रहा है । जब तक कालेज में थे, कालेज लाइब्रेरी में काफी साहित्य था हिन्दी में और कभी कभार पढते भी थी..पर उस अनुपात में नही जिसमें अंग्रेजी की पुस्तकें ।और खरीदी तो बिल्कुल भी नही ।एक कारण अनुपलब्धता भी है..अधिकांश जगहों पर आपको हिन्दी पुस्तकें ना के बराबर मिलेंगी, अखबारों में बामुश्किल किसी किताब का जिक्र/समीक्षा होती है । इंडिया टुडे/आउट्लुक वगैरा में जरूर नियमित समीक्षाएं छपती हैं पर उनमें से अधिकतर इतनी साहित्यिक होती हैं कि बस ।
सो काफी दिनों से में हिन्दी पुस्तकें पढने और खरीदने की सोंच रहा था । एक कारण विभिन्न चिट्ठों पर हिन्दी की कई पुस्तकों का जिक्र भी रहा…जिस भी पुस्तक का जिक्र होता…लगता, कि अरे ये तो पढी ही नही है । हिन्दी चिट्ठे पढने के बाद ही लगा कि मैने कितने कम हिन्दी लेखकों को पढा है । प्रेमचन्द, शरतचन्द्र आदि तो स्कूल में पढ लिये थे पर उनके बाद कुच्छ नही । (सिवाय सुरेन्द्र मोहन पाठक के जिन्हे इन्जिनीयरिंग के समय खूब पढा 🙂 )
सो इस बार गुजरात निकलते वक्त सोंचा हुआ था कि स्टेशन पर किसी बुक स्टाल से पुस्तकें जरूर लेनी है । अहमदाबाद के लिये निकलते समय रायपुर स्टेशन पर बहुत देर किताब की दुकान पर खडे रहने के बाद मनोहर श्याम जोशी की ‘कसप’ खरीदी । २४ घण्टॆ बाद अहमदाबाद उतरते समय किताब २० पृष्ठ और बाकी थी । वो भी अगले १-२ दिन में खत्म कर दिये । अगले २० दिन काफी व्यस्त रहे सो कुछ पता ही नही चला और एक बार फिर अपने आप को हैदराबाद में पाया । लग रहा था कि फिर थोडा इन्तजार करना पडेगा ।
लेकिन कहते हैं ना जहां चाह वहाँ राह।
हैदराबाद में हर रविवार को अबिड्स में पटरी(फुट्पाथ) पर पुरानी किताबों का बाजार लगता है, ठीक ठीक वैसा ही जैसा दरियागंज में लगता है । अधिकतर नई बेस्ट्सेलर्स के पायरेटेड संस्करण, भारी तादाद में पुराने अंग्रेजी उपन्यास..(इतना पल्प…२० रुपये में किताबों के सजिल्द संस्करण..पर ना कभी किताब का नाम सुना होगा ना लेखक का) , बच्चों की किताबें..पुरानी पत्रिकाएं..काफी कुछ मिल जाता है ।हर १-२ रविवार छोड कर, मुझे कुछ घन्टे यहाँ वक्त बिताने में काफी मजा आता है…चाहे अपने काम की किताब मिले या ना मिले अथवा कुछ खरीदी हो ना हो लेकिन सिर्फ घूमने, किताबों को उलटने पलटने में ही काफी अच्छा वक्त गुजर जाता है । पर हिन्दी पुस्तकें यहाँ भी नदारद …कई बार तलाश किया किया पर सिवाय रानू /राजभारती के पुराने सामाजिक उपन्यासों के सिवा कुछ नही मिलता ।
पिछले के पिछले रविवार कुछ हाथ आया..एक दुकान से गुजर रहा था कि कुछ किताबों पर नजर पडी, देखा …भीष्म साहनी, अचार्य चतुरसेन जैसे कुछ नाम लिखे हुए थे । रुका तो देखा उसके पास अधिकतर हिन्दी और उर्दू की पुस्तकें थीं । अगला आधा घंटा अपना वहीं बीता..और जब चले वापस तो ये १० किताबें अपने हाथ में थी
खामोशी के आंचल में – अमृता प्रीतम
वैशाली की नगरवधू – आचार्य चतुरसेन
बगुला के पंख – आचार्य चतुरसेन
श्री कांत – शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
शेष प्रश्न – शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
दो व्यंग नाटक – शरद जोशी
सुरंगमा – शिवानी
प्रेरक प्रसंग (दो भाग) – गीताप्रेस
वांड्चू एवं अन्य कहानियां – भीष्म साहनी
और जरा सोंचिये, कितने दाम चुकाये हमने इन किताबों के…? मात्र १००/- रुपये !!! अपना तो संडे वसूल हो गया भई…आजकल इन्हे ही पढ रहा हूं, अगला एक महीना बडे आराम से कटेगा । 🙂
पर किस्मत का ताला यहीं बन्द नही होता ना अपना, कूछ दिन पहले ओर्कुट पे घूमते हुए हिन्दी ई-पुस्तक समूह से ई-स्निप्स की ये कडी हाथ लग गयी , जिसके बारे में बाद में रवि रतलामी जी ने रचनाकार पर लिख ही दिया है , अतः और कुछ लिखने की जरूरत नही है । यहाँ भी छोटा मोटा खजाना ही रखा है । बस अगर आप कम्प्यूटर में आँख गडाये पढ सकते हों तो निश्चय ही मस्त जगह है ।
पुनश्च: – सागर जी, आपका दिया पर्चा हल करने में थोडी देर लगेगी, पर जल्द ही हाजिर होंगे जवाब लेकर 🙂
बहुत खूब! सबके बारे में पढ़कर लिखना! खासकर ‘मारगांठ’ वाली कसप के बारे में!:)
बहुत सही, अब तो आने वाला एक महिना एकदम चकाचक किताबोम के साथ. 🙂
बहुत सही किताबें पढ़ने में जो मजा है वो ईबुक्स पढ़नें में कहाँ। शरतचंद्र के कुछ उपन्यास तो मैंने भी पढ़े थे काफी पहले। पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे हम उनके समय में पहुँच गए हों। अब तो किताबें पढ़ना छूट ही गया।
नई थीम अच्छी लग रही है। पुरानी तीन कॉलम वाली में तो कुछ ढंग से पढ़ा ही नहीं जाता था और न ही मजा आता था। इस वाली में एकदम सही दिखता है।
चिट्ठे का नया आवरण अच्छा लग रहा है.
100 रू. में आपने तो खजाना पा लिया.
मगर समय निकाल कर अपने यात्रा ससंमरण लिखते रहें.
अनूप जी, अवश्य कोशिश रहेगी कि ‘जिलेम्बू मारगांठ’ के बारे में कुछ लिख सकूं
समीर जी, सही कहा..एकदम चकाचक
श्रीश जी, ई पुस्तकें पढने में ‘वो’ बात तो नही होती…पर क्या करें कम्बख्त ऐसी लगी हुई है आदत..अंग्रेजी के कई ई-उपन्यास पढ चुका हूँ।
संजय जी, ‘ब्लागर मीट इन कर्णावती’ का मेरा संस्करण अभी बाकी है :)…और तो चलता रहेगा…
मुझे समय-समय पर समस्या आती है। जिसके लिए मुझे कोई सहायता देने वाला नहीं होता। कोई वेबसाइट नहीं है। जहां से मुझे अपनी समस्या का हल मिले।
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