हैदराबाद में करीब ६ महीने हो गये हैं और इन छः महीनों में सबसे ज्यादा धक्के खाना खाने के लिये खाए हैं …ना जाने कितने होटलों के मत्थे टेके हैं, कितने रेस्त्राओं को आजमा कर देखा है । इसी लेकर कुछ राज की बातें-ज्ञान की बातें-काम की बातें, जो अपन ने अपने अनुभव से जानी, देखी, सीखीं, समझीं ।
‘टिफ़िन’ का मतलब होता है नाश्ता और ‘मील्स’ मतलब खाना…याने अगर दफ़्तर में कोई आपसे पूँछे कि “Had your Tiffin?” तो उसे अपना लंचबाक्स मत दिखाने लगिये…वो पूँछ रहा है कि क्या आप नाश्ता कर चुके?
चपाती और फुल्का और रोटी तीन अलग अलग चीजें है..
चलिये आपको इनका अंतर भी समझा देते हैं,चपाती और फुल्का, मैदा के बनते हैं, आटा प्रयोग करने का चलन नही है इधर । फुल्का बोले तो मैदा की लोई को जरा सा चपटा किया, और एक मिनट तक डोसे वाले तवे पर गरम होने दिया । बस और कुछ नही करना, फुल्का तैयार..ये आपको मील्स के साथ बोनस के तौर पर दिया जाता है। चपाती फुल्के की बडी बहन है, और मेरे हिसाब में हमारी तरफ़ पाये जाने वाले परांठे की भी दूर की रिश्तेदार हो सकती है । इसके अंतर्गत फुल्के से थोडी बडी और नरम लोई को बेल कर उसी डोसे वाले तवे पे डाल दें, ऊपर से थोडे नारियल तेल के छींटे दे दें, थोडा उलट पलट दें। बस चपाती तैयार । और रोटी…अबे वो क्या होती है…वो इधर नही मिलती ।
वैसे फुल्के और चपाती की खासियत ये है, कि थाली में परोसने के १० मिनट तक अगर आपने इन्हे खुल्ला छोड दिया, तो फ़िर चाहे आप पेप्सोडेंट लगातें हों, या लाल दंत मंजन…आप इन्हे नही चबा सकते…अजी चबाना छोडिये, टुकडे करने में पसीने आ जायेंगे ।
आप को रोटी खानी हो या पूरी या डोसा, साथ में नारियल चटनी ही मिलेगी…न ना..अचार तक नही मिलेगा..अगर आप अड गये तो पहले आपको समझाया जायेगा कि नही ‘साsssर’ अचार रोटी के साथ नही देते (थोडा आश्चर्य भी जताया जायेगा, कि कैसा बेवकूफ़ है, चपाती/पूरी के साथ अचार मांग रहा है)…फ़िर थोडी बहस कीजिये…फ़िर समझौता..कि भाई चटनी ना दे..बस अचार दे दे
सब्जी(दाल/सांभर) में डालने के लिये एक प्याज या टमाटर के दो से ज्यादा टुकडे करना वर्जित है। अगर प्याज/टमाटर छोटा है तो पूरा भी चलेगा (क्या फ़र्क पडता है, उबलने के बाद सब एक जैसे हो जायेंगे)। लौकी के टुकडे कम से कम एक क्यूबिक इंच के जरूर हों, इससे छोटे नही। गनीमत है, कद्दू का ज्यादा चलन नही है ।
ऊपर वाला नियम हरी मिर्च पर भी लागू होता है
सलाद याने कच्ची प्याज/टमाटर या ककडी नाम की कोई चीज नही होती…पर सांभर में कोई सी भी सब्जी (गाजर,लौकी,बैंगन…)किसी भी मात्रा में और किसी भी आकार में डाली जा सकती है।
झाडू से अपनी जिन्दगी में फ़र्श ही साफ़ होते देखा था..लेकिन नही, डोसा बनाने का तवा भी इससे साफ़ किया जाता है (सींक वाला झाडू)
कोई भी मील्स दही के बिना अधूरा है…दही नही तो सही नही ।
चावल के साथ आपको सांभर,रसम,दाल,एक सूखी सब्जी और कोई चटनी भी मिल जायेगी…पर रोटी (सारी चपाती के साथ…सिर्फ़ नारियल चटनी और पता नही कौन सी सब्जी)…बहुत नाइंसाफ़ी है !!!!
हरी सब्जी (साग) का यहाँ चलन नही है…उसकी कमी सांभर/रसम/नारियल चटनी में करी पत्ता डाल कर पूरी कर ली जाती है. अब करी पता के साथ दिक्कत ये है कि उसे चबाकर निगलना बडा मुश्किल है..इसलिये छाँटना पडता है
चाय में अदरक/इलायची/चाय मसाला डालने का कोई रिवाज नही है, यहाँ तक कि दूध और चाय को साथ साथ उबालते भी नही हैँ, चाय का पानी अलग, दूध अलग और ऐन मौके दोनो को चीनी के साथ मिलाया और पकडा दी(एकदम फ़ारेन श्टाइल में)…अब यार जब तक पत्ती दूध में ना उबले तब तक भला चाय का भी कोई मजा है?
अब कुछ अच्छी बातें भी (इसका मतकब ये नही है कि ऊपर मैने बुरी बातें लिखी थी 😉 )…
इधर अधिकतर होटल्स में बर्तन गर्म पानी से धोये जाते हैं, और विशेषकर चम्मच तो हमेशा ही गर्म पानी में डूबी हुई मिलती है।
पीने का पानी बाकायदा स्टील के जग-गिलास में ही मिलता है,और ढँका हुआ होता है…वो सीमेंट की खुली टंकी, और प्लास्टिक के जग नही दिखते।
हैदराबाद में शाकाहारी भोजन की समस्या नही आती,’सिर्फ़ शाकाहारी’ होटल बहुतायत में हैं, बहुरूपता भी है खाने में। पर उत्तर भारतीय को ज्यादा समय दक्खिन का खाना हजम नही हो सकता..इसी लिये तो ऊपर इतना रोना रोया है। फ़िर भी हैदराबाद को पूरा दक्षिण भारत का हिस्सा कहना उचित न होगा, और चेन्नई और बैंगलोर जैसे शहरों के मुकाबले उत्तर भारतीयों के लिये यहाँ ज्यादा आसानी होती है।
और हाँ, कुछ चीजें जिनकी खूब याद आती है..गरमागरम पोहा-जलेबी, दाल-बाटी, सादा रोटी-सब्जी 😦
Bagla ji bahut dinon baad aana hua aake blog par… kaafi acchaa likha dala hai aaaapne khushi hui hyderabadi cuisine ko jaan kar likhte rahiye…..l
भोजन पुराण बढिया था । क्या क्या खाना सीखा ?
लेख मज़ेदार था आपकी व्यथा कष्टमय।
बागला जी,
हैदराबाद इतना भी बुरा नही है जितना आपने लिखा है।मैंतो यहां २७वर्ष से रह रही हूं ।शायद आपको सही होटेल नही मिले ।यूंतो थोडी बहुत परेशानी हर शहर में होती है अगर यहां के लोग दिल्ली या कोई अन्य शहर में जाएं तो वे भी यही कहेगे जो आप कह रहे हैं।ज़नाब कुछ अपने स्वाद को बदलिए ,घर और होटेल के खाने में फ़र्क होता है।कही भी जाएं आपके मन मुताबिक तो कहीं नहीं मिलेगा।बस इतना ही…..बाकी फ़िर कभी…
डा. रमा द्विवेदी
जब ज्यादा से ज्यादा लोग दक्षिण की तरफ जाएंगे तो शायद यह समस्या खत्म हो जाएगी. मांग के साथ हमारे रोटी-सब्जी के होटल भी खुल जाएंगे. अभी तो आप एडजेस्ट करो.
अब मैं आपको क्या बोलूं मतलब.. एक मिनट को लगा कि मैं HYD मे ही हूं.. [;)]
बहुत सही लेख.. हर बार की तरह..
लिखते रहें.. 🙂
बागला जी लेख तो बढिया है पर हैदराबादी खाने तो दुनिया भर मे मशहूर हैं
काहे पोहा जलेबी की याद दिलाते हो भैये. ऐसा पढ़कर तो दिल ही मचल जाता है और ज़ुबां से लार टपकती है. यहां दिल्ली का पंजाबी ब्रांड खा-खाकर थक चुका हूं. लज़ीज़ पकवान खाने के लिए तो दूर जाना पड़ता है. आप खुद ही बनाओ अब तो.. एकरसता कहीं भी हो बुरी ही लगती है.
नितिन भाई,
आपके दू:ख मे सहभागी हूं, यहां चेन्नई मे तो और भी बूरे हाल है।
अब हालत यह है कि हम खाना खुद बनाते है और लंच के लिये भी खुद के बनाये परांठे और सब्जी लेकर जाते है 🙂
सुना था हैदराबादी खाना मस्त होता है… आप तो ह्तोत्साहीत कर रहे हो। .. 🙂
अच्छा भाई बुरा मत मानना पर ब्लोग के हेडर की इमेज बदल सकते हो क्या?… ऐसे चटकीले रंग हैं कि आखे रह ही नहीं सकती. 🙂
स्वयं खाना पकाना सीखा होता तो यह विवरण कैसे बनता। देर आयत दुरुस्त आयत। जितनी जल्दी हो सके पकाना सीख लो।
नितिन जी, बडा “स्वादिष्ट” लेख लिखा है!!
धन्यावद अखंड,प्रत्यक्षा जी,रत्ना जी, राज, संजय जी, रचना जी..मेरे ‘दर्द’ में शामिल होने के लिये 🙂
रमा जी, आप तो नाराज हो गईं…दरअसल मैने हैदराबाद को कहीं भी बुरा नही लिखा…”जैसा है वैसा लिखा”, जरा नीचे से दूसरे पैरा पर भी गौर कीजियेगा…और रही स्वाद बदलने की बात…दो तिहाई जिन्दगी होस्ट्ल, मेस,होटल, टिफ़िन आदि का खाना खाते बीती है…स्वाद क्या होता है यही भूल गये…जाहि विधी राखे राम…रह लेते हैं..और दुःख दर्द..अपने चिट्ठे पे कह लेते हैं 🙂
शुहैब भाई और पंकज जी, हैदराबादी खाने की दुनिया भर में तारीफ़ तो होती है..पर वो ज्यादातर माँसाहारी खाने के लिये..वो अपने को बिल्कुल नही चलता…पंकज जी, हेडर जल्द बदल दिया जायेगा…
नीरज जी, पोहा जलेबी…उसमे बारीक सेंव, नींबू, प्याज, टमाटर..और पोहा मसाला..उम्म्म्म्म्म्म्म अब क्या कहेंगे :)))
आशीष भाई और प्रेमलता जी,
वैसे तो खुद बनाने का काम सर्वोत्तम है…और काफ़ी कुछ मुझे आता भी है…पर सोंचिये..जहाँ ४ ‘लड के’ एक साथ रहेंगे…तो काम के बँटवारे को लेकर सास-बहू के झगडे से भी खराब हालात हो जायेंगे…आशीष भाई, आप कहोगे हम भी ३-४ लडके साथ हैं तो आप तो अपने पार्टनर्स को डरा-धमका के काम करवा लेते हो… 🙂 😀
आप तो अपने पार्टनर्स को डरा-धमका के काम करवा लेते हो… 🙂 😀
भैये ऐसा सारी जनता के बिच मे नही कहते 🙂
दोस्त तुम कहाँ से हो
मुझे लगता है कि हम मैं दूर का रिश्ता हो सकता है। मेरे पापा की जो बुआ जी हैं वह मनोहरथाना के हैं & abhi kota main rahte hain| unki kaafi badi family hai ( they r also bagla)
may be.. kya tum vasudha bagla ko jante ho .. ( unki family main mujhe aur kisi ke naam yaad nahin :P)
भैया हमें तो यही मालुम था कि हैदराबाद और लखनऊ का खाना लाजवाब और लज़ीज़ होता है। लगता है अभी अविवाहित हैं, अन्यथा यह कदापि ना कहते कि झाड़ू मात्र फ़र्श साफ़ करने के काम आती है। हमारे झड़ते हुये बालों को देखिये समझ में आ जायेगा कि महिलायें इसका प्रयोग कहां कहां कर सकती हैं। शादी करिये, और जानिये कि जेब और बैंक के खाते भी झाड़ू मार कर साफ़ किये जा सकते हैं।
malik aapke liye naya lekh likh diya hai
यहाँ दिल्ली में जब कभी दक्षिण भारतीय खाना खाते है तो बहुत स्वादिष्ट लगता है। परतुं जब आपकी व्यथा पढी तो पता चला कि डोसा-सांभर भी टार्चर दे सकता है।
Jaane kahaan se ghoomte firtey aapki website pe pahunch gaye. Padhke bahut majaa aaya or khushi hui. Kuchh aise hi anubhav mujhe pehle Bangalore mein huye or ab Singapore mein.
नितिन जी, आपने तो दिल के दर्द को ऐसा निकाल के रखा है कि मुझे अपना दर्द भूलने को जी चाहता है. पर क्या करूं हम लोगां तो हॉस्टल में रहते… … जायें तो कहाँ जायें. रोज़ सबेरे उठ कर ब्रेड-बटर से तंग आ चुके पर कुछ नहीं होता… … खाना ही पड़ता. हाँ हम लोगां हैदराबाद में नहीं रहते ऐसा करके मेरे कू बोल सकते, बोलो जी बोलो… … … पर मैं भी आपको एक बात बोलूं… … … हमारी मेस में खाना बनाने वाले आंध्रप्रदेश से आये हैं[:)]
अब जो कुछ आपने ऊपर लिखा है… … हम सब भी उस सबसे बहुत परेशान हैं. पर सोचता हूँ कि गलती उनकी नहीं हैं… … वो तो बेचारे अपने स्वाद के हिसाब से तो अच्छा ही बनाते हैं.
(पहले para में मैने थोडा़ सा हैदराबादी पुट देने की कोशिश की है, बुर मत मानियेगा.)
shubham lahoti !!! rite ? can you just drop your mail to nihitgupta@gmail.com
am nihit, grad iit b, chemcial..remember. currently working in hyderabad.
ये दोशतो देहरादुन मे बारिस होरहा है ठंड काफिर बढ गई है किवकी मशूरी मे बरफ गिर रहा है