ये पोस्ट लिखते हुए डर तो लग रहा है..कारण..अजी आजकल जो फिल्म मुझे अच्छी लगती है वो फ्लाप जो हो जाती है..पर क्या करूं मामू…बोले तो..अपने आप को रोक नही पाये…उम्मीद पूरी है कि इस बार ऐसा नही होगा
सबसे पहले, पहली बात, पार्ट -१ के मुकाबले कैसी है, तो अपना कहना ये है कि इक्कीस नही है…पर उन्नीस भी नही है..इक्कीस नही लगने की वजह ये हो सकती हैं कि पहले भाग को देखने के पहले कोई अपेक्षा थी नही, और इस बार फिल्म अपेक्षाओं के बोझ तले दबी थी..
पिछली बार मुन्ना ने डाक्टर बन कर लोगों के दिल का खुश किया था, इस बार मुन्ना की जोडी बनी है(सर्किट के अलावा)…अपने बापू के साथ, बापू..बोले तो गाँधी जी.और हाँ,,जादू की झप्पी इस बार अपको नही मिलेगी..पर हाँ, गाँधीगिरी है ना..वो क्या है..ये तो आप खुद ही देख लीजियेगा
फिल्म की कहानी यहाँ ज्यादा लिख कर आपका मजा खराब नही करूंगा बस इतना ही कि मुन्ना इस बार अपने प्यार को पाने के लिये नाटक करता है, इतिहास का प्रोफेसर बनने का, प्यार है जान्हवी(विद्या बालन), जो ग्रेसी सिह से कहीं अच्छी दिखती है(जब विद्या बालन हम पाँच में आती थी तो सोंच भी नही सकते थे कि इतनी खूबसूरत दिख सकती है)…और जब लोचा हो जाता है, तो मुन्ना की मदद के लिये आते हैं गाँधी जी..बोले तो इस बार भाईगिरी/दादागिरी नही, गाँधीगिरी चलेगी|
फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है कहानी, जो बिना बोर किये और प्रवचन दिये, कई सारे समसामयिक मुद्दों को छू जाती है..और हास्य तो अपनी जगह है ही…हैदराबाद में पब्लिक इतनी तालियाँ और सीटियाँ बजा रही थी, तो उत्तर भारत की तो मैं कल्पना ही कर सकता हूँ|
फिल्म की कहानी,निर्देशन और संपादन राजकुमार हीरानी का है..और हर पहलू पर उन्होने वाकई मेहनत की है, कोई विदेशी लोकेशन नही,महँगे-चकाचौंध भरे सेट नही, पर एक शानदार कहानी और कन्सेप्ट(करण जौहर शायद सुन रहे हों)..और पात्र चयन के बारे में तो कुछ कह ही नही सकते…Everybody just made for the role he is performing.और हाँ आप अपने पूरे परिवार के साथ बैठ कर फिल्म देख सकते हैं,कोई टेन्शन नही.
अपनी माने तो..जरूर देखना मामू..
आपको ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ को ‘मुन्ना भाई MBBS’ के मुक़ाबले 21 बताने से घबराना नहीं चाहिए था.
‘लगे रहो मुन्ना भाई’ का हास्य ‘गरम-मसाला’ या ‘चुपके-चुपके से’ जैसी हाल की फ़िल्मों से कहीं ऊँचे स्तर का है. सामाजिक संदेश की भी बात करें तो यह ‘रंग दे बसंती’ से पीछे नहीं है.
इतना हँसा-हँसा कर सत्य-अहिंसा का संदेश बाँटा जा सकता है, इसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती. मुन्ना और सर्किट की जोड़ी ‘आउटडेटेड’ माने जानेवाले बापू को गांधीगिरी के ज़रिए जनता के बीच ले जाने में सफल रही है.
इस फ़िल्म ने रेडियो(‘वर्ल्डस्पेस’, जिसका जम कर प्रचार जीतेन्द्र जी ‘मेरा पन्ना’ पर कर चुके हैं) के बढ़ते महत्व को भी स्थापित किया है.
संजू बाबा, अरशद वारसी, विद्या बालन(‘परिणीता’ वाली ख़ूबसूरती बरक़रार है) और बोमन ईरानी ने ख़ूब अभिनय किया है. छोटी भूमिकाओं में कुलभूषण खरबंदा, सतीश कौशिक और जिमी शेरगिल ने बढ़िया रोल किया है. बुड्ढों की जमात भी अभिनय के मामले में पीछे नहीं रही है. और तो और, अभिषेक भी कुछ गड़बड़ नहीं कर पाए(बिना पिताश्री के उतरे हैं) क्योंकि सिर्फ़ एक बार उन्हें परदे पर उतरना था, वो भी मात्र एक मिनट के लिए!
वंदेमातरम पर चल रही राजनीति के बीच इस फ़िल्म में राष्ट्रगीत का क्या ख़ूब उपयोग हुआ है!
‘मुन्ना भाई MBBS’ से तुलना करें तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में एकमात्र कमी जो खली, वो संजू बाबा के पिताश्री सुनील दत्त साहब की.
सुभाष के. झा, कोमल नाहटा, इंदु मिरानी जैसे पेशेवर फ़िल्म समीक्षक जो भी लिखें, मैं तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ को 9/10 दूँगा.
उपरोक्त टिप्पणी में सतीश कौशिक की जगह सौरभ शुक्ला पढ़ा जाए…
१०० प्रतिशत सही कह रहे हो बाकी फिल्म के बारे में विस्तार से निठल्ला चिंतन में लिखा हुआ है।
लगता हैै फिल्म देखनी पड़ेगी।
हिन्दी ब्लागर जी, आपकी टिप्पणी, अपने आप में फ़िल्म की बहुत अच्छी समीक्षा है, रही बात पहले भाग से तुलना की, पहले मैने सोंचा था कई बिन्दुओं पर लिखने का, पर फ़िर लगा कि ये तुलना दोनो फ़िल्मों के साथ अन्याय होगी.
कम से कम फ़िल्म की समीक्षा में तो तुलना ना ही करूं…हाँ, अलग से इस पर लिखने का सोंचा जा सकता है..
पर हाँ..फ़िर भी पार्ट १….पहला पार्ट थी..मैं तो उसे ही इक्कीस मानूंगा…पहले प्यार तरह 🙂
तरुन जी..टिप्पणी का शुक्रिया
रत्ना जी, जरूर देखियेगा 🙂
nitin jee
samiksha mai maja nahi aaya