सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख का आना अवश्यंभावी है, तो….?
या तो सुख के समय ये सोंच के दुबले होते रहें..कि ये दिन ज्यादा नही चलेंगे…दुःख के बादल कभी भी घिर सकते है और दुःख में ये सोंच कर खुश हो लें कि बहुत जल्द ये बादल छंट जायेंगे…सुखभरे दिन आते ही होंगे…आखिर दुःख की भी कोई लिमिट होगी, पर इनसे ज्यादा मुश्किल है वर्तमान में जीना । एसे जियें, कि बस यही एक पल है…आगे पीछे का किसने देखा है…ये शायद फ़क्कड प्रवृत्ति कहलायेगी, पर सबसे ज्याद अलमस्त शायद इसी श्रेणी के लोग होते हैं…
ऐसा ही सिद्धांत सफ़लता असफ़लता पर भी लगा सकते हैं….हर बार जितना सफ़ल होते हैं…अगली बार उससे बेहतर कर पाने की टेंशन होती जाती है..पता नही कर पाएंगे या नही..क्योंकि खुद की, और आसपास वालों की अपेक्षाएं भी बढती जाती हैं…और हर बार असफ़ल होते हैं तो….क्या कहने..
पर मैं ये सब क्यों सोंच रहा हूं…बात ये है कि हर शुक्रवार को अपन बडे खुश रहते हैं…वजह..अरे अगले दो दिन छुट्टी है ना…पर रविवार को बिल्कुल अच्छा नही लगता…चाहे वो खुद दिन छुट्टी का है…पर कल….कल तो फ़िर जाना है ना…ओफ़िस..इस चक्कर में बेचारा वर्तमान धरा रह जाता है…
अच्छा अब चलते हैं….हमें ‘मुन्नाभाई’ से अपनी आज या कल या परसों की अप्वाइनमेंट फिक्स करनी है…
सुख और दुःख ना हों तो फिर जीने मे कैसे मज़ा आए?
दो दिन छुट्टी मुबारक हो भाई – यहां हमें सिर्फ इतवार को एक दिन छुट्टी मिलती है
इसी का नाम जीवन है.
agreed, jina hai to aaj main jiyo.
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