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Archive for मार्च 11th, 2007

एक विषय हुआ करता था हमारा Understanding Behaviour (UB)। हिन्दी में कहें तो “व्यवहार की समझ”। जो प्रोफेसर जी हमें पढाती थीं, वो कहा करती थीं कि उनकी दो आखें पीछे की तरफ भी हैं, अतः कोई उनकी क्लास में मस्ती ना करे वो सब देख रही हैं। फिर भी एक आध झपकी, थोडे बहुत चिट पास करना इनकी कक्षाओं में भी हो ही जाते थे और वो कई बार हमें क्लास में नाश्ता करते हुए नही देख पाईं, बावजूद उन दो आँखों के।(प्राक्सी अटेन्डेन्स पकड ली थी एक बार और दोषी द्वारा खुद ना स्वीकार किये जाने पर मामला CBI के हस्तलेखा विशेषज्ञों तक पहुँचाने की धमकी मिली थी 🙂 मजाक नही कर रहा)। खैर..

इस UB में समूह और समूह निर्माण की प्रक्रिया पर कुछ लेक्चर सुने थे। वैसे समूह का सटीक अंग्रेजी पर्याय Group होगा (टीम को क्या कहेंगे हिन्दी में? (शायद दल), फिर पार्टी को?..) खैर जाने दीजिये। ग्रुप, टीम अदि की अलग अलग परिभाषाएं बताई गईं थी।

इस पोस्ट का जो मसाला बनता है वो ये है कि किसी भी समूह के निर्माण के चार चरण होते हैं। अपने जीवन काल में , हर समूह, कहीं ना कहीं इन चरणों से अवश्य गुजरता है, और वो भी उसी क्रम में, जिसमें कि ये दिये हुए हैं। यहाँ समूह की विस्तार से परिभाषा में नही जा पाऊँगा (मुझे याद भी नही है), अभी के लिये इतना ले लेते हैं कि एकाधिक व्यक्ति, जब किसी उद्देश्य/कार्य में लगे हों, उसे समूह कहेंगे। तो इस समूह के निर्माण में पडने वाले वे चार चरण निम्न हैं….

पहला चरण – Forming : इस चरण में समूह बनता है, भिन्न भिन्न दिशाओं से भिन्न भिन्न प्रकार के लोग आकर मिलते हैं। समूह अपनी जमीन तलाश रहा होता है और काफी कुछ अस्पष्ट सा होता है। एक दूसरे के प्रति सभी लोग तरीके से पेश आते हैं। लोग एक दूसरे के प्रति कुछ शंकित भी होते हैं, तो यों भी हो सकता है कि एक दूसरे का मान रखने के लिये ही कुछ बाते मान ली जाती हैं। लेकिन कुल मिला कर तस्वीर धुंधली सी होती है, भविष्य को लेकर उत्सुकता होती है, समूह के कुछ मानक नही होते, तय नियम नही होते, जिम्मेदारियों तय नही होतीं, लेकिन उन्हे बनाने की कोशिश की जाती है, या प्रक्रिया शुरू की जाती है । सामान्यतयः इस समय समूह का कोई मुखिया नही होता, कोई Dominate नही कर रहा होता, सब एक दूसरे को टटोल रहे होते हैं ।

दूसरा चरण – Storming : Storm बोले तो तूफान। जी हाँ, यह समूह निर्माण का तूफानी दौर होता है । विभिन्न स्तरों पर आपसी टकराव और मतभेद अपने चरम पर होते हैं। पिछले चरण में एक दूसरे का जो लिहाज वाली बात थी, वो यहाँ नही रहती। हर कोई अपनी बात मनवाना चाहता है। समूह में वैचारिक सहमति के आधार पर छोटे छोटे गुट भी बन जाते हैं। सवाल उठाये जाते हैं, बहस होती है, आरोप प्रत्यारोप भी हो सकते हैं कुल मिला कर समूह में एक अनियंत्रित सी ऊर्जा का संचार होता रहता है । देखा गया है कि कई बार कई समूहों में यह चरण लांघ कर अगले चरण पर पहुंच जाया जाता है (आपसी टकराव से बचने के लिये) । लेकिन माना जाता है कि इस चरण से मुह मोडना समूह के स्वास्थ्य के लिये अच्छा नही होता। यही अनियंत्रित ऊर्जा, आगे जाकर अपना आकार लेकर समूह की ऊर्जा बनती है जो उसे लम्बे समय तक टिकाऊ, मजबूत और जीवित बनाये रखने में सहायक होती है, क्योकि इन्ही टकरावों के परिणाम सवरूप समूह का चेहरा, उसकी तस्वीर बनती है, उसकी दिशा उभर कर सामने आती है, कि समूह को कहाँ जाना है ।

तीसरा चरण – Norming
: Norm बोले तो नियम । तो भाई, लडाई झगडे के बाद अब कायदे कानून और नियम की बारी आती है। समूह में टकराव का दौर बीत चुका है, लोगों के ने एक दूसरे के साथ रहना सीख लिया है और खुद को उसी हिसाब से ढाल लिया है, कुछ नियम, प्रोटोकोल बन गये हैं, कुछ नियम लिखित होते हैं, और कुछ अलिखित, किंतु हर सदस्य से ये अपेक्षा की जाती है कि वो इन नियमों का पालन करे। समूह के सद्स्यों को भी ये समझ में आ गया होता है कि टकराव बहुत हो चुका, अब समाधान देखा जाये, और जिस कार्य के लिये समूह बना था, उसे निपटाने की ओर ध्यान दिया जाये । याने थोडा Adjust किया जाये। थोडा तुम झुको, थोडा हम तनें, लेकिन काम किया जाये, कुछ परिणाम निकाला जाये। यहाँ कभी कभार समस्या ये आ जाती है, कि, लक्ष्य को लेकर लोग ज्यादा चिन्तित रहते हैं और सिर्फ उसी को पाने का प्रयास करते हैं । अब चूँकि Storming वाले दौर के बाद सब लोग एक दूसरे को जान चुके होते हैं, अतः एक दूसरे की खूबियों/खामियों से भी परिचित हो जाते हैं, और एक दूसरे को टालने के तरीके निकाल लेते हैं, और इस प्रक्रिया में कभी कभी संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाती है

चौथा चरण – Performing : जैसा कि नाम से ही जाहिर है, ये कुछ कर दिखाने का वक्त होता है । समूह के सभी लोग एक जुट होकर समूह के लक्ष्य प्राप्ति में लग जाते हैं। समूह के सदस्य परिपक्व हो चुके होते हैं। एक दूसरे से सामंजस्य स्थापित हो जाता है और एक दूसरे के प्रति, अपने समूह के प्रति, और बाहरी वातावरण के प्रति उत्तरदायित्व की भावना जागृत होती है। सदस्य बाधाओं से, परेशानियों से पार पाने के अभ्यस्त हो जाते हैं, एक दूसरे को समझते हैं और अपना पूरा श्रम लक्ष्य की प्राप्ति में लगाते हैं

तो ये थे चार चरण किसी भी समूह के बनने के। विभिन्न समूहों में, लक्ष्य, सदस्य संख्या,देश, काल के आधार पर इन चार चरणों की अवधि में परिवर्तन हो सकता हैं ,कहीं कहीं एक दूसरे में घालमेल भी, लेकिन मोटा-मोटी यही क्रम चलता है यही प्रक्रिया चलती है। लेकिन ये यहाँ आकर खत्म नही होता वरन चक्रिय होता है और यह चक्र चलता रहता है।

वैसे तो ये चरण प्रबंधन की कक्षाओं में पढाए जाते हैं , जहाँ किसी बडे संस्थान में टीम कैसे बनाई जाये और किन किन बातों का ध्यान रखा जाये आदि पर जोर दिया जाता है किन्तु मैने महसूस किया है कि आम जिन्दगी के छोटे-छोटे/बडे-बडे वाकयों/घटनाओं/दुर्घटनाओं में भी, जहाँ एकाधिक लोग मिले, ये प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जान बूझ कर शुरू नही होती/की जाती, बस खुद ब खुद होता चला जाता है जैसे…..ट्रेन के डब्बे में, बस की सीट पर, टिकट खिडकी की लाइन में, नई-नई कक्षा में, हास्टल में, शादी/बच्चा होने के बाद और….और…और..???? 🙂

पुनश्चः नींद में सुने हुए लेक्चर बहुत ज्यादा याद नही रहे थे, और प्रोफेसर जी के नोट्स भी मेरे पास नही थे, इस लेख को लिखने के लिये इस पन्ने की मदद ली गयी। वैसे ये चार चरण और इनकी भांति भांति के व्याख्यायें आपको बरास्ता गूगल, अंतरजाल पर और भी मिल जायेंगी।

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